Wednesday, September 18, 2024

उर्दू बह्र पर एकबातचीत : क़िस्त 105 : इज़ाफ़त में क्रिया का निर्धारण

 क़िस्त 105: इज़ाफ़त में क्रिया का निर्धारण

[ अतिरिक्त जानकारी के लिए आप क़िस्त 70--80---81 भी देख सकते हैं ]

पिछले क़िस्तों [ मसलन क़िस्त 70---क़िस्त 80---क़िस्त 81 ] में इज़ाफ़त और अत्फ़ के बारे में विस्तार से चर्चा कर चुका हूँ।

 आशा करता हूँ इज़ाफ़त और अत्फ़ क्या है, उर्दू शायरी में इनका क्या महत्व या क्या ज़रूरत है -कुछ हद तक आप लोगो ने समझ लिया होगा।

फिर भी संक्षेप में बता दूं कि दर्द-ए-दिल --ग़म-ए-इश्क़---वहशत-ए-दिल ---पैग़ाम-ए-हक़---ख़ाक-ए-वतन---बाम-ए-फ़लक--जल्वा-ए-हुस्न-ए-अजल --जू-ए-आब---राह-ए-मुहब्बत--- बहर-ए-बेकरां----कू-ए-उलफ़त--दर्द-ए-निहाँ --दिल-ए-नादां ---दौर-ए-हाज़िर -बर्ग-ए-गुल - बाद-ए-बहार---चिराग-ए-सहर ---

जैसे युग्म शब्दों को इज़ाफ़त कहते हैं [ जिसे कसरा-ए-इज़ाफ़त भी कहते हैं}

अरबी में क़सरा [उर्दू में ज़ेर] --इसलिए कहते हैं कि ऐसे युग्म शब्द में -" पहले शब्द के आखिरी हर्फ़ के नीचे एक ज़ेर या कसरा की अलामत [निशान] लगा देते हैं । [उर्दू वाले -ए-नही लिखते ] हम हिंदी वाले -ए- लिख कर इसे जताते और  बताते हैं। इस कसरा [ज़ेर] के प्रभाव से --वह आखिरी "हर्फ़’ मुतहर्रिक हो जाता है जो-1- का वज़न देता है। अगर उस आख़िरी हर्फ़ को खींच कर पढ़ेगे तो -2- का भी वज़न देगा

जैसे--गम-ए-दिल= 11 2 भी हो सकता है या 122 भी हो सकता है बह्र की माँग के अनुसार।

दिल-ए-नादाँ = 11 22 भी हो सकता है या 1222  भी हो सकता है बह्र की माँग के अनुसार।

यह फ़ारसी की तरक़ीब है और पुराने शायरों ने अमूमन सभी शायरों ने इसका प्रयोग किया है ख़ास तौर से ग़ालिब ने। आजकल हिंदी में इसका प्रयोग कम ही होता है और होता भी है तो कभी कभी तरकीब उलटी हो जाती है। ख़ैर।

आज हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि अगर दो शब्दों को जोड कर जो युग्म शब्द बनेगा तो वह कौन-सी  क्रिया [ फ़े’ल] अनुसरण करेगी ? यानी क्रिया स्त्रीलिंग होगी कि पुल्लिंग होगी ?

हम जानते हैं कि शब्द  या तो स्त्री लिंग [ मुअ’न्नस] होगा  या पुल्लिंग [ मुज़क्कर] होगा । 

आज इसी पर चर्चा करेंगे। 

दो शब्द जोड़ने पर 3-स्थितियाँ बन सकती है ।

स्थिति 1= अगर दोनो शब्द पुल्लिंग [ मुजक्कर] हों तो स्वभावत: क्रिया पुल्लिंग शब्द का अनुसरण करेगी। जैसे इस शे’र से स्पष्ट है

हिज्र की शब, नाल:-ए-दिल वो सदा देने लगे

सुनने वाले रात कटने की  दवा देने लगे ।

-साक़िब लखनवी

नाल: = पुलिंग

दिल = पुल्लिंग

क्रिया = देने लगे-- पुल्लिंग

[ ऐसे ही आप बहुत से उदाहरण खोज सकते हैं}

स्थिति 2 = अगर दोनो शब्द स्त्री लिंग [ मुअ’न्नस] हो तॊ स्वभावत: क्रिया स्त्रीलिंग शब्द का अनुसरण करेगी । जैसे इन शे’रों से स्पष्ट है--

फिर आज आई थी इक मौज-ए-हवा-ए तरब

सुना गई है फ़साने इधर उधर के  मुझे ।

-नासिर काज़मी-

   मौज़ = स्त्रीलिंग

  हवा  = स्त्रीलिंग

क्रिया -= आई थी 

 [ ऐसे ही आप बहुत से उदाहरण खोज सकते हैं}

स्थिति 3= अगर एक शब्द पुल्लिंग हो और दूसरा शब्द स्त्री लिंग हो तो ? तब क्रिया पहले शब्द के लिंग के अनुसार अनु्सरण करेगी ]

         मुझको मौज-ए-नफ़स देती है पैग़ाम-ए-अजल

        लब उसी मौज़-ए-नफ़स से है नवा-पैरा तेरा ।  -

                                            --इक़बाल

मौज़= स्त्रीलिंग

नफ़स=पुल्लिंग

क्रिया मौज़ के अनुसार --देती है-[स्त्रीलिंग]


चमन से रोता हुआ मौसम-ए-बहार गया

शबाब सैर को आया था, सोगवार गया ।    

                                            -इक़बाल

मौसम = पुल्लिंग

बहार =  स्त्रीलिंग

क्रिया -मौसम- के अनुसार --रोता हुआ गया -।


शम्मअ-ए-मज़ार थी ,न कोई सोगवार था

तुम जिस पर रो रहे थे ये किसका मज़ार था।

                                        -बेख़ुद देहलवी-

शम्मअ’ = स्त्रीलिंग

मज़ार    = पुल्लिंग

क्रिया --शम्मअ’ के अनुसार --थी।]

{[ ऐसे ही आप बहुत से उदाहरण खोज सकते हैं} 

और आप स्वत: चेक कर सकते हैं

 उर्दू में कुछ शब्द ऐसे है जो दोनॊ लिंग में  प्रयोग होते है जैसे-चर्चा --सोच 

आप जो क्रिया लगाना चाहें } जैसे -आप की सोच/ आप का सोच

उनकी चर्चा/ उनका चर्चा --शब भर रहा चर्चा तेरा --


हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम 

वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता 

                        -अकबर इलाहाबादी-

आप लोगों से अनुरोध है कि अगर कहीं ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही फ़र्मा दें कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं~।

सादर

-आनन्द.पाठक


Wednesday, September 4, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 104: तुम इतना जो मुस्करा रहे हो--की बह्र क्या"

 

क़िस्त 104  : " तुम इतना जो मुस्करा रहे हो"  मिसरे की बह्र क्या होगी? "


किसी मंच पर किसी मित्र ने एक प्रश्न पूछा है इस मिसरे की बह्र क्या है। यह आलेख उसी संदर्भ में है।

पहले तो यह स्पष्ट कर दूँ कि 

1- कभी कभी किसी एक मिसरे से सही सटीक बह्र नही निकाली जा सकती।

2- सही सटीक बह्र निकालने के लिए अगर 3-4 शे’र हो तो बेहतर। शे’र जितने ज़ियादें होंगे बह्र उतनी ही

सही और सटीक निकलेगी । अगर पूरी ग़ज़ल हो तो फिर बात ही क्या।

3- कुछ मित्रों ने इस एक मिसरे की बह्र अपने अपने तरीके से बताई । किसी ने इसे मीर कि बह्र बताई किसी ने 

इसकी बह्र   २२१२२ - १२१२२ बताई [ नाम नही बताया ] ख़ैर।

4- किसी भी शे’र का सही सही बह्र निकालने /जाँचने का सबसे सही तरीका उसकी सही सही तक़्तीअ’ करना है।

वैसे भी तक़्तीअ दो प्रकार की होतॊ है

-- हक़ीक़ी तक़्तीअ’

-- ग़ैर हक़ीक़ी तक़्तीअ’

[ इस विषय पर किसी और दिन बात करूँगा]


3- अपने एक मित्र से इसकी पूरी ग़ज़ल मँगवाई -बह्र निर्धारण के लिए। तो मालूम हुआ कि यह जनाब क़ैफ़ी आज़मी [ मरहूम] साहब की

ग़ज़ल है जो फ़िल्म ’अर्थ [1982] में प्रयोग हुआ है। 


तुम इतना जो मुस्करा रहे हॊ

क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो ।


आँखों में नमी, हँसी लबों पर

क्या हाल है क्या दिखा रहे हो ।


बन जाएँगे ज़ह्र पीते पीते -

ये अश्क़ जो पीते जा रहे हो।


जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है

तुम क्यूँ उन्हें छेड़े  जा रहे हो ।


रेखाओं का खेल है मुकद्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो ।



इस ग़ज़ल की तक्तीअ के आधार पर मैने इस ग़ज़ल [ इस मिसरे की भी ] बह्र निकाली है [ यह मानते हुए कि जिसने यह ग़ज़ल उन्होने सही

नकल कर के भेजी होगी। शायद उन्होने ’रेख्ता’ साइट से किया है। ख़ैर

पाठको की सुविधा के लिए तक़्तीअ’ यहाँ पेश कर रहा हूँ  । मैने इसकी बह्र

221---1212----122 [ बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस अख़रब मक़्बूज़ महज़ूफ़] निकाली है।

 तक़्तीअ’ कर के देखते हैं।


2    2   1  / 1  2    1  2  / 1 2 2 

तुम इतना/ जो मुस करा /रहे हॊ

क्या ग़म है/ जिस को छुपा/ रहे हो । -1


आँखों में /नमी, हँसी/ लबों पर

क्या हाल/ है क्या दिखा/ रहे हो । -2


बन जाएँ/गे ज़ह्र पी/ते पीते -

ये अश्क़ /जो पीते जा /रहे हो। -3


जिन ज़ख़्मों /को वक़्त भर/ चला है

तुम क्यूँ उ/न्हे छेड़े  जा /रहे हो । -4


रेखाओं /का खेल है /म कद दर

रेखाओं / से मात खा/ रहे हो । -5


टिप्पणियां~

शे’र 1--कुछ लोगों का मानना है कि मतला के मिसरा सानी --जिस [2]- पर बह्र टूट रही है। अगर -जिस को[2 2]  की जगह  ’जिसे’ [1 2] होता तो बेहतर होता।

बात तो सही है फिर तो कुछ विवाद न होता।

मगर क़ैफ़ी साहब ग़लत नहीं थे-- वो भी सही थे  -। शायरी  मक़्बूती [ लिखित] के अलावा  मलफ़ूज़ी [ उच्चारण के आधार पर ] भी निर्भर करती है।

अगर आप -जिस - पर ज़रा ज़ियादा ज़ोर दे कर -एक ठहराव दे कर पढे तो यह ’ मुतहर्रिक [1] का वज़न देगा।  -स- यूँ ही साकिन है। -स- अपनी आवाज़ नहीं देगा।

अत: -जिस- को -1- की वज़न पर लेना ग़लत नहीं होगा ।


शे’र 5 -- में कुछ लोगों को -रेखाओं-[ 2 2 1 ] पर लेने की आपत्ति थी । यहाँ -ओं- को -1- की वज़न पर लिया गया है। यानी शे’र की अदायगी में --ओ- को खीच कर नहीं

बल्कि दबा कर लगभग -अ-[1] की आवाज़ तक यानी मात्रा पतन कर  पढ़ना होगा जो कि किया जा सकता है ।


आप लोगों से अनुरोध है कि अगर कहीं ग़लत तक़्तीअ हो गई हो तो निशानदिही फ़र्मा दें कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं~।

सादर

-आनन्द.पाठक