Tuesday, April 2, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 86: ग़ालिब के एक ग़ज़ल की तक़्तीअ’- नक्श फ़रियादी है---

 एक चर्चा :-_ग़ालिब_के_एक_ग़ज़ल_की_तक़्तीअ’ [ क़िस्त 1]


आज बैठे ठाले सोचा कि बेबात की बात में  ग़ालिब की एक ग़ज़ल की तक़्तीअ’ ही कर दें--

ग़ालिब की एक ग़ज़ल है, आप लोगों ने इसे ज़रूर पढ़ा होगा और सुना भी होगा ।

इस ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने अपने अन्दाज़ में गाया है। यू-ट्यूब पर मिल जायेगा।


ग़ज़ल


नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का

काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तसवीर का । -1


काव काव-ए-सख़्तजानी हाय तनहाई न पूछ

सुबह करना शाम का लाना है जू-ए- शीर का । -2


जज़्बा-ए-बेअख्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए

सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का ।-3


आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए

मुद्दाआ’ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का ।-4


बस कि हूँ ग़ालिब असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा

मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मेरी ज़ंजीर का । -5


-#ग़ालिब--

=== ==== ===== =

तक़्तीअ’ [ बहुत से लोग इसे ’तख्ती’ लिखते हैं जो ग़लत है। सही शब्द है तक़्तीअ’ -जिसका अर्थ होता है --टुकड़े

टुकड़े करना । यह शब्द ’क़तअ’ से बना है जिसका अर्थ होता है ’कटा हुआ" ] किसी गज़ल [ शे’र ] का सही वज़न और बह्र जानने के लिए सबसे मुफ़ीद तरीक़ा ’तक़्तीअ’ करना ही होता है

जिससे पता चलता है कि कि शे’र वज़न से ख़ारिज़ है या किस हर्फ़ का वज़न कहाँ कहाँ गिराया या दबाया गया है जिसेहम आप मात्रा-पतन समझते हैं या छूट लेना समझते हैं।वैसे अरूज़ में मात्रा-पतन का कोई कन्सेप्ट नहीं है क्योंकि वहाँ कोई हिंदी की तरह मात्रा तो होती  नही । वहाँ सारा काम -ज़बर --ज़ेर-पेश  तन्वीन --तस्दीद से या हर्फ़ के तलफ़्फ़ुज को दबा कर या खीच कर वज़न देते है ख़ास तौर से हरूफ़-ए-इल्लत [ अलिफ़-वाव-ये ] से या कभीहे-[ हा-ए-हूज़-यानी छोटी -हे-  हा-ए-मुख्तफ़ी] के उच्चारण कॊ खींच कर या दबा कर  वज़न मिलाते है।

चूँकि ग़ज़ल तो ग़ज़ल है चाहे हिंदी [ या देवनागरी में लिखी या कही गई हो या फिर उर्दू लिपि में लिखी गई हो। क़ानून या व्याकरण [ क़वाइद] अर्कान  तो

उर्दू का ही लगेगा हम नाम चाहे जो भी दें -भले -रुक्न/ फ़ेल /अफ़ाइल/तफ़ाइल/- "मापनी" /  जो कह दें।

ख़ैर

किसी ग़ज़ल की तक़्तीअ’ करने के पहले हमें उस ग़ज़ल का सही सही मान्य व प्रामाणिक बह्र निकालना या जानना ज़रूरी है।

दिलचस्प बात यह कि --बह्र अगर पहले से मालूम हो तो --तक़्तीअ’ करना किसी ग़ज़ल का बह्र निकालना निस्बतन [अपेक्षाकृत ]आसान होता है -

ख़ैर

ग़ालिब के उक्त ग़ज़ल की बह्र है [ एक बार आप भी चेक कर लीजिएगा ]

2122---2122---2122---212--

[ फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन- फ़ाइलुन ]

और नाम है - बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़

[ यह नाम कैसे पड़ा--आप जानते होंगे ]]

----   -----  --

 शे’र -1

2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 = 2122--2122--2122--212

नक़्श फ़रिया/ दी है किसकी / शोख़ी-ए-तह/रीर का

काग़ज़ी है/ पैरहन हर/ पैकर-ए-तस/ वीर का ।


यहाँ शोख़ी-ए-तहरीर का वज़न 2122 क्यों लिया गया । पूछ सकते हैं आप । 

यह फ़ारसी की तरकीब है जिसमें दो या तीन ’फ़ारसी" शब्दों को जोड़ा जाता है । चूंकि इसे ’कसरा ’ [ उर्दू में ’ज़ेर’ [ , ] के निशान 

से जोड़ा जाता है अत: इसे "कसरा-ए-इज़ाफ़त" कहते हैं । उर्दू फ़ारसी के शायरों को और ग़ालिब को इसमें महारत हासिल थी ।

ख़ैर अब उर्दू में यह ’फ़ारसी लफ़्ज़’ वाली क़ैद खत्म हो गई ।अब तो लोग उर्दू -हिंदी-यहाँ तक की अंग्रेजी के भी शब्दों को जोड़ने के लिए

इस तरक़ीब का इस्तेमाल करते हैं।

इस विषय पर मैने अपने ब्लाग -’ उर्दू बह्र पर एक बातचीत" -पर विस्तार से लिखा है। आप चाहें तो वहाँ देख सकते है।

ख़ैर--

सवाल यह कि ’शोखी-ए-तहरीर’ को 2 1 2 2 पर क्यों लिया गया?

कसरा-ए-इज़ाफ़त की वजह से == शोखी - को शोखि [ 21 ] के वज़न पर लिया गया - चूंकि यहाँ -ख़- पर बड़ी -इ- की मात्रा है कसरा ने उसे छोटा कर दिया ।

-ए-  -2- का वज़न देगा [ ख़याल रहे यही-ए- कभी कभी और कहीं कहीं -1- का भी वज़न देता है और कहीं कहीं 2 का वज़न देता है ,  बह्र और रुक्न की मांग पर] 

-तह - तो वैसे भी 2 के वज़न का  है  । अत: शोख़ी-ए-तहरीर = 2 1 2 2 


चूँकि लेख लम्बा न हो जाए और आप पढ़ते पढ़ते  बोर न हो जाए -आज की चर्चा यहीं ख़त्म करते हैं

बाक़ी  अश’आर की तक़्तीअ’ अगले क़िस्त में करेंगे ।


-आनन्द.पाठक-


[ नोट --  कुछ मित्रों की शिकायत रहती है कि मेरे ऐसे आलेख उनकी समझ से परे होते हैं , सर के ऊपर से निकल जाते हैं।्समझ में नहीं आते।

हो सकता है । चूंकि आप  हर रोज़ ग़ज़ल लिखते हैं तो ग़ज़ल के बारे में ,ग़ज़ल के व्याकरण के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी तो रखते ही होंगे, मज़ीद जानकारी 

हो जाए तो बुरा क्या है। वैसे भी अब हिंदी ग़ज़लॊ में -इज़ाफ़त का प्रयोग  लोग कम ही करते है और--का--के--की-- लगा कर ही काम चला लेते हैं  मगर जो लोग  ग़ालिब--मीर--दाग़--ज़ौक़--इक़बाल आदि की शायरी का ज़ौक़ फ़र्माते है उन्हे यह जानकारी ग़ज़ल के वज़न और बह्र समझने में  फ़ायदा ही करेगी। 

इस लेख को पढ़ने न पढ़ने से आप के ग़ज़ल लेखन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। जैसे आप लिख रहे हैं वैसे ही लिखते रहें।

  इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता [ करबद्ध ] गुज़ारिश है कि अगर तक़्तीअ’ करने में कुछ ग़लती हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़र्माएँ कि मैं ख़ुद को आइन्दा

दुरूस्त कर सकूँ}---सादर।


Tuesday, March 26, 2024

एक चर्चा : हिंदी ग़ज़ल में ;"नुक़्ता’ का मसला

  [ नोट --वस्तुत: यह विषय  -"उर्दू बह्र पर एक बातचीत "- का नहीं है फिर भी मैने इस पोस्ट को यहां~ पोस्ट किया। आइन्दा ऐसे आलेख मेरे दूसरे ब्लाग --शायरी की बातें- पर पढ़ेंगे जिसका पता है

शायरी की बातें

या फिर मेरे फ़ेसबुक पेज पर पढ़ सकते हैं जिसका लिंक है--

https://www.facebook.com/profile.php?id=61555222865499

====   ======   =======आनन्द पाठक

एक चर्चा : हिंदी ग़ज़ल में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 1]


"नुक़्ते के हेर फ़ेर से ख़ुदा जुदा हो गया"--यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा। जो लोग उर्दू के ’हरूफ़-ए-तहज़्ज़ी’ [ उर्दू वर्णमाला ] से परिचित हैं वह इस जुमले का अर्थ अच्छी तरह जानते होंगे।और जो सज्जन नहीं जानते होंगे उनके लिए स्पष्ट कर देता हूँ ।

उर्दू में ख़ुदा “ख़े” (خ) से लिखा जाता है, जिसमे नुक़्ता ऊपर होता है। लेकिन अगर यही नुक़्ता ख़ुदा लिखते वक़्त नीचे लग जाये तो ये “ख़े” की जगह जीम (ج) हो जाता है और इस तरह “ख़ुदा” (خدا) “जुदा” (جدا) हो जाता है। “जुदा होना” का मतलब है “अलग होना ’ । ख़ुदा का मतलब तो आप जानते ही होंगे। ख़ैर।

 जब से उर्दू ग़ज़लॊ का लिप्यन्तरण हिंदी के देवनागरी लिपि  में होने लगा उससे एक तो फ़ायदा यह हुआ कि उर्दू ग़ज़लों को एक विस्तार मिला, श्रोता गण मिले , हिंदी वाले उर्दू शायरी के  शे’र-ओ-सुख़न ्से परिचित हुए ।फलत: हिंदी में ग़ज़ल कहने वाले और लिखने वालॊं में आशातीत वृद्धि हुई। अब तो फ़ेसबुक पर  हर  दूसरा व्यक्ति  ग़ज़ल लिख रहा है। उसमे कितनी  "ग़ज़ल’ है और  कितनी फ़कत  "तुकबन्दी"  इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। 

मगर इस वाक़िया से  उर्दू गज़ल से हिंदी ग़ज़ल में कुछ  समस्याएँ  भी आईं,  सौती क़ाफ़िया का मसला आया , प्रतीकों का मसला आया  जिसमे से एक "मसला" हिंदी में नुक़्तों का भी आया। । सौती क़ाफ़िया या अन्य  मसाइल  पर कभी  बाद में बात करेंगे। आज की चर्चा -हिंदी ग़ज़ल में ’नुक़्ता" का मसला- तक ही सीमित रखेंगे।

उर्दू में नुक़्ते का कोई मसला नहीं । अगर होगा भी तो वह उनकी  लापरवाही का सबब होगा ।यह उनकी "वर्तनी" [इमला]  और इल्म का हिस्सा है। उर्दू [ अरबी , फ़ारसी में भी ]जहाँ नुक़्ता लगाना है वहाँ नुक़्ता लगाना ही लगाना होगा । कोई विकल्प नहीं कोई छूट नहीं। वरना उनका इमला ग़लत माना जाएगा--जो सही नहीं होगा। मूलत:  हिंदी में --नुक़्ता- हमारे वर्णमाला का हिस्सा नहीं है ।नुक़्ते का कोई ’कन्सेप्ट [ Concept]’ नहीं । मगर अरबी -फ़ारसी--उर्दू--तुर्की- शब्दों को कुछ हद तक हिंदी में समायोजित [ accomodate  ] करने के लिए ’नुक़्ते; का कन्सेप्ट लाया गया ।

जैसे---क/क़--ख/ख़--ग/ग़-- ज/ज़---फ/फ़  या फिर अ/ ’अ आदि

  कुछ हद तक इसलिए कि हिंदी में नुक़्ते लगे वर्ण ’पूरी तरह’ से उर्दू हर्फ़ के ’तलफ़्फ़ुज़’ [ उच्चारण ] हू-ब-हू नुमाइंदगी नही करते है Exact Mapping  नहीं करते।  जैसे ज-/ज़

उर्दू में ज़ के  5- हर्फ़ [ जे--झे--जाल--जोए---जुवाद---  ] प्रयोग होते हैं जिनके उच्च्चारण [ तलफ़्फ़ुज़] मुख़्तलिफ़ होते हैं बारीक सा ही सही मगर अलग अलग होता है । और इतना बारीक होता है कि आम मुसलमान भी बोलने में फ़र्क़ नहीं कर पाता , अगर वह मदरसा से तालीमयाफ़्ता [प्रशिक्षित  या तालिब  न हो। तो हम हिंदी वालों की क्या बात--सब ज/ज़ एक समान। लिखने में भी और बोलने में भी।

तो क्या हिंदी ग़ज़लों में  वर्ण पर "नुक़्ता’ लगाना ज़रूरी है? या बिना लगाए काम चल जाएगा? न लगाएँ तो क्या होगा? क्या यह वैकल्पिक [ obligatory  ] है ?  या आवश्यक हैं [ mandatory  ]--ऐसे बहुत से सवाल  समय समय पर बहुत से मंचों पर उठते रहते है। बहस चलती रहती है । आज भी यह मुद्दा ज़ेर-ए-बहस  है। 


इस प्रश्न पर दो विचार समूह [school of thought] हैं-


1- एक  तो वह  जो भाषा की शुद्धता के लिहाज़ से उर्दू शब्दों को नुक़्ता लगाने का आग्रह करते हैं । उनका मानना है कि आम जनता को /जन साधारण को/ श्रोता को  एक ’साहित्यकार [ कवि लेखक शायर ] से भाषा की अपेक्षाकृत अधिक शुद्धता की आशा रहती है। 24-कैरेट की आशा। सोना जितना शुद्ध हो उतना है वैल्यू उतनी ही कीमत। 

जो काशी तन तजै कबीरा--रामहि कौन निहोरा । जब नुक़्ता लगाना ही है तो फिर बहस की गुंजाइश कहाँ ?


2- दूसरे वह  जिनका मानना है कि चूँकि हिंदी में नुक़्ते का कॊई कन्सेप्ट [concept ]नहीं है अत: -हमारी वर्तनी का हिस्सा नहीं है-लगा दिया तो ठीक--नहीं लगाया तो भी ठीक-। नहीं लगाया तो कौन सी आफ़त आ जाएगी। सोना 24 करेट का नही तो 18-20 करेट का ही --कहलाएगा तो सोना ही । कोई पूर्वाग्रह नहीं।  प्रसंग और संदर्भ के अनुसार श्रोताओं को भाव स्पष्ट  हो ही जाता है । जैसे 

वह  हमारे यहाँ खाने पर आया -- वह मयख़ाने से आया/ बुतख़ाने में आया । अगर मयखाने / बुतखाने में -ख- पर नुक़्ता नहीं लगाया तो भी अर्थ/ भाव स्पष्ट ही है प्रसंगानुसार।

उसी प्रकार 

रूस युक्रेन में "जंग" जारी है / आप के दिमाग़ में ’ज़ंग’ लगा हुआ है । अगर -ज- पर नुक़्ता लगा हो, न लगा हो भाव समझने में कोई फ़र्क नही पड़ेगा।लगा दिया तो ठीक -नहीं लगा तो भी ठीक। हम में से अधिकांश  हिंदी भाषी उतनी बारीकी से उच्चारण भी नहीं कर पाते हैं  और न उच्चारण के भेद ही  पकड़ पाते हैं। लिखने में भले ही थोड़ा  फ़र्क पड़े  तो पड़े, बोलने में तो कत्तई नहीं।

ऐसे हज़ारो उदाहरण आप को मिल जाएंगे। जैसे इन्साफ़/इन्साफ --शरीफ़/शरीफ़-- दाग/दाग़--गम/ग़म -ख़्वाब/ख्वाब-ग़ालिब/गालिब---इक़बाल/इकबाल --खयाल/ख़याल - --हज़रत/हजरत 

नुक़्ता लगे ना लगे क्या फ़र्क पड़ता है। प्रसंगानुसार  भाव और अर्थ स्पष्ट रहता है

हाँ नुक़्ताचीं करने वाले --बेग़म/ बेगम पर आप को ज़रूर टोकेंगे। अज़ल/अजल पर ज़रूर टोकेंगे।

प्र्श्न यह है कि हम आप कहाँ खड़े है ? 

 मैं तो भाई इन दोनॊ के बीच खड़ा हूँ  । 

[1] यदि आप आश्वस्त हैं कि अमुक हर्फ़ पर  नुक़्ता लगेगा ही लगेगा --तो आप नुक़्ता लगाएँ

[2] यदि आप आश्वस्त नहीं हैं , दुविधा में हैं  कि वहाँ नुक़्ता लगेगा कि नहीं लगेगा तो बेहतर है कि नुक़्ता न  लगाएँ।

अब कुछ दिलचस्प बातें कर लेते हैं--

उर्दू के हर शब्द के मूल  [ Root word] में  3-हर्फ़ [ मस्दर ]  होता  जिसे हम ’धातु’ कह सकते है 

 जैसे ’क़त्ल {[ क़-त-ल ] --यानी -क- नुक़्तायुक्त  --क़- 

क़त्ल से बने जितने भी शब्द होंगे सबमें क- पर ; नुक़्ता ’ यानी -क़-आएगा  जैसे

क़त्ल--क़ातिल--मक़्तूल--क़तील--मक़तल --या इसे बने यौगिक शब्द  --जैसे क़ातिल नज़र--क़त्लगाह --क़तील सिफ़ाई

जैसे --नज़र -- [ न--ज़--र  ] से बने शब्द

नज़र--नज़री--नज़रीया--नज़ाइर---नज़ीर-- नज़्ज़ारा--मनाज़िर --या इसे बने यौगिक शब्द जैसे --नज़र अन्दाज़--नज़र-ए-बद --ख़ुशनज़र

ऐसे ही अन्य  बहुत से शब्द।

चलते चलते एक बात और

नुक़्ता के खुद ही दो शकल है--


नुक़्ता [ -क-बिन्दु युक्त ] === बिन्दी, जो उर्दू के किसी हर्फ़ पर लगाते हैं [ नुक़्त-ए-नज़र 

नुक्ता [-क-  बिना बिन्दु के ] ===  गूढ बात [  नुकते की बात यह  कि-----।

ऐसे बहुत से शब्द --अजल--अज़ल आदि आदि

अब आप यह स्वयं  तय करें कि आप किस तरफ़ खड़े हैं।   24 केरेट वाले के साथ [ first school of thought } या 20 केरेट वाले के साथ [ second school od thought] ?

चलते चलते किसी का एक शे’र आप के चिन्तन के लिए छोड़ जाता हूँ 

हम ’दुआ’ लिखते रहे, वह ’दग़ा’ पढ़ते रहे

एक ’नुक़्ते’ ने हमें महरम से मुजरिम बना दिया।


अब आप सोचिए शायर ने ’दुआ" लिखा मगर मगर महबूबा ने ’ दग़ा’ पढ़ा। क्यों ?

[ जवाब --आप उर्दू स्क्रिप्ट में -’दुआ’- और -’दग़ा"-लिख कर देख लीजिएगा---बात साफ़ हो जाएगी।

आज इतना ही --बाक़ी अगले अंक में ---अगली क़िस्त में--]

सादर


-आनन्द.पाठक-


Tuesday, February 13, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :: क़िस्त 85 : कुछ बातें माहिया के बारे में

: माहिया के बारे में

[ नोट - माहिया की बह्र के बारे में मैने क़िस्त 61 में तफ़सील् से चर्चा की है आप वहाँ देख सकते हैं]

यहाँ माहिया क्या है के बारे में कुछ चर्चा कर रहा हूँ\


माहिया की जड़ें पंजाबी लोकगीतों में पाई जाती हैं। 

आप ने जगजीत सिंह और चित्रा सिंह द्वारा गाए हुए कई माहिए ’यू-ट्यूब’ पर अवश्य सुने होंगे। जैसे- 

कोठे ते आ माहिया

मिलड़ा त मिल आ के

नै तू ख़स्मा न खा माहिया


की लैड़ा है मितरां तूं

मिलड़ ते आ जावां

डर लगता है छितना तूं

ये माहिए हैं।

माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल में कजरी , चैता, फ़ाग ,सोहर आदि लोकगीत की परम्परा है ।माहिया को कहीं कहीं कुछ लोग ’टप्पा’ भी कहते या समझते हैं।

उर्दू शायरी में तो वैसे तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल, रुबाई, नज़्म, मसनवी, मर्सिया आदि काफ़ी मशहूर है, इस हिसाब से ’माहिया लेखन’ बिलकुल एक नई विधा है। यह सच है कि माहिया को उर्दू शे’र-ओ-सुख़न में अभी उतनी लोकप्रियता हासिल नहीं हुई है जितनी ’ग़ज़ल’ को हुई है। आशा है गुज़रते वक़्त के साथ साथ ’माहिया’ विधा भी लोकप्रिय होती जायेगी।

जैसा कि बता चुके हैं कि माहिया उर्दू शायरी की अपेक्षाकृत एक नई विधा है। माहिया के बह्र और वज़न [मात्रा विन्यास] पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। माहिया के उदभव और विकास तो ख़ैर एक शोध का विषय है। यह विषय यहाँ नहीं है।

चूँकि “माहिया”-पंजाबी लोकगीत परम्परा से उर्दू शायरी परम्परा में आई है। अत: प्रारम्भ में उर्दू शायरी में इसके एक सर्वमान्य बह्र और वज़न निर्धारण में काफी मतभेद रहा। प्रारम्भिक दौर में माहिया बह्र संरचना की 2-विचारधारा थी। पहली विचारधारा तो वह, जो यह मानती थी कि माहिया के तीनो मिसरे एक ही बहर और एक ही वज़न में होते हैं और दूसरी विचारधारा वह थी जो यह मानती थी कि पहले और तीसरे मिसरे का वज़न एक-सा होता है और दूसरे मिसरे का बह्र या वज़न अलग होता है।


इस मसले को सुलझाने के लिए जनाब हैदर कुरेशी साहब ने एक तहरीक़ [आन्दोलन] भी चलाया और वह दूसरी विचारधारा के समर्थक रहे। आप ने माहिया पर काफी शोध और अध्ययन किया, काफी माहिया भी कहे । उर्दू में माहिया के वज़न निर्धारण में उनका काफी योगदान रहा है ।आप ने अपने कहे माहिए के संग्रह भी निकाले है। [संक्षिप्त परिचय आगे दिया गया है] 


  अन्तत:, यह तय किया गया कि माहिया 3-मिसरों की एक काव्य-विधा है जिसमे पहला और तीसरा मिसरा ’तुकान्त’ [ हमक़ाफ़िया] होत्ता है और दूसरा मिसरा ’तुकान्त’ हो भी सकता है और नहीं भी। पहले मिसरे और तीसरे मिसरे का वज़न एक होता है और बाहम [परस्पर ] हमक़ाफ़िया होते है। दूसरे मिसरे का वज़न अलग होता है। माहिया के औज़ान [मात्रा-विन्यास] के बारे में आगे विस्तार से चर्चा करेंगे ।

कुछ लोगों का मानना है, उर्दू में सबसे पहले माहिया हिम्मत राय शर्मा जी ने 1939 में बनी एक फ़िल्म “ख़ामोशी” के लिए लिखे थे। उनके कहे हुए चन्द माहिए बानगी के तौर पर यहाँ लगा रहा हूँ।

 

क बार तो मिल साजन

आकर देख ज़रा

टूटा हुआ दिल साजन


सहमी हुई आहों ने

सब कुछ कह डाला

ख़ामोश निगाहों ने


यह तर्ज़-बयाँ समझो

कैफ़ में डूबी हुई

आँखों की ज़ुबाँ समझो


तारे गिनवाते हो

बन कर चाँद कभी

जब सामने आते हो 

 

वहीं कुछ लोगों का मानना है कि उर्दू में सबसे पहले  माहिया जनाब मौलाना चिराग़ हसरत ’हसरत’ साहब मरहूम ने सन 1937 में लिखा था ।

  बागों में पड़े झूले

तुम भूल गए हमको

हम तुम को नहीं भूले ।


यह रक़्स सितारों का

सुन लो कभी अफ़साना

तकदीर के मारों का । 


सावन का महीना है

साजन से जुदा रह कर

जीना भी क्या जीना है ।


इन माहियों को कई गायकॊ ने अपने स्वर और अपने अन्दाज़ में गाया है जिन्हें यू-ट्यूब पर देखा और सुना जा सकता है ।

उर्दू में सबसे पहले माहिया किसने लिखा यह शोध और बहस का विषय हो सकता है। हमारा उद्देश्य यहाँ मात्र इतना है कि उर्दू में शुरुआती तौर पर माहिया कैसे लिखे गए। बाद में दीगर शायरों ने छिटपुट रूप से शौक़िया तौर पर माहिए लिखे, पर माहिया-लेखन का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ।

 तत्पश्चात ।

हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया ’क़मर जलालाबादी ’साहब ने हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] के लिए लिखा था और जिसे भारत भूषण और मधुबाला जी पर फ़िल्माया गया था। संगीतकार ओ0पी0 नैय्यर साहब के निर्देशन में मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया था। आप ने भी सुना होगा।


" तुम रूठ के मत जाना     

मुझ से क्या शिकवा  

दीवाना है दीवाना  


यूँ हो गया बेगाना   

तेरा मेरा क्या रिश्ता  

ये तू ने नहीं जाना  


ये माहिए हैं ।

  बचपन में मैने भी सुना था। बड़ी अच्छी धुन और दिलकश आवाज लगती थी। मगर मुझे मालूम नहीं था कि ये -माहिए- हैं। अब पता चला कि माहिया में भी अपनी बात कही जा सकती है, दर्द भरा जा सकता है, अभिव्यक्त किया जा सकता है ।

इसके बाद हिंदी फ़िल्मों में बहुत दिनों तक माहिए नहीं लिखे गए। कुछ लोग छिटपुट तौर पर माहिए लिखते और कहते रहे ।बाद में साहिर लुध्यानवी साहब ने हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’[ 1957 ] के लिए चन्द माहिए लिखे जिसे बी0आर0 चोपड़ा साहब के निर्देशन में  दिलीप कुमार और अजीत के ऊपर ऊपर फ़िल्माया गया। ओ0पी0 नैय्यर साहब के संगीत निर्देशन में- मुहम्मद रफ़ी साहब ने बडे दिलकश अन्दाज़ में गाया है। 


 दिल ले के  दगा देंगे     

 यार है मतलब के  

 देंगे तो ये क्या देंगे  


दुनिया को दिखा देंगे         

यारो के पसीने पर  

हम खून बहा देंगे 


यह भी माहिए हैं ।

 माहिया का शाब्दिक अर्थ प्रेमिका से बातचीत करना होता है, बिलकुल वैसे ही जैसे ग़ज़ल या शे’र में होता है। दोनो की रवायती ज़मीन, मानवीय भावनाएँ, संवेदनाएँ और विषय एक जैसी ही हैं -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा, गिला, शिकायत, रूठना, मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया की भी ज़मीन बदलती गई ।जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन,सामाजिक विषय मज़ाहिया विषय  पर भी माहिया कहे जाने लगे।

  चन्द माहिए विभिन्न रंगों के,भिन्न भिन्न ’थीम’[ विषय ] पर मुख्तलिफ़ माहियानिगारों के लिखे हुए माहिए लिख रहा हूँ। आप भी आनन्द उठाएँ ।


हर हाल में बैठेंगे

गाँव में जाएँगे

चौपाल में बैठेंगे

-नज़ीर फ़तेहपुरी


गोरी का उडा आँचल

कितना सम्भाला था

दिल फिर भी हुआ पागल

प्रभा माथुर


झूठे अफ़साने में

कैसे मिलते हम

बेदर्द ज़माने में

आरिफ़ फ़रहाद


सावन की फ़ज़ाओं में 

ख़ुशबू का अफ़साना

जुल्फ़ों की घटाओं में

-मनाज़िर आशिक़ ’हरगानवी’


है रंग बहुत गहरा

सुर्ख़ अनारों की

तकती है तेरा चेहरा

अनवर मिनाई


सच था कि कहानी थी

याद नहीं हम कॊ

क्या चीज़ जवानी थी

क़मर साहरी

जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने माहिया के लिए बड़ी शिद्दत से एक तहरीक चलाई थी। आप ने बहुत से माहिए कहे हैं। उनके माहिए उनके इन 2-किताबों में संकलित हैं

1 मुहब्बत के फूल

2 दर्द समन्दर

उन्हीं में से चयनित, चन्द माहिए आप के लिए बानगी के तौर पर लगा रहा हूँ। आप भी लुत्फ़ उठाएँ।


तू ख़ुद में अकेला है

तेरे दम से मगर

संसार का मेला है 


दुनिया पे करम कर दे

प्यार की सीनों में

फिर रोशनियाँ भर दे


याद आ ही गए आख़िर

कुछ भी सही, लेकिन

भाई हैं मेरे आख़िर


रंग मेहदी का गहरा है

हुस्न ख़ज़ाना है

और जुल्फ़ का पहरा है


चाहत की गवाही थे

हम भी कभी यारों

इक ’हीर’ के माही थे


डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनके माहिया संकलन

“ख़्वाबों की किर्चीं’ से चन्द माहिए आप के लिए बानगी के तौर पर लगा रहा हूँ। आप भी आनन्द 

उठाएँ। 


मिट्टी के खिलौने थे

पल में टूट गए

क्या ख़्वाब सलोने थे   


मुफ़लिस की मुहब्बत क्या

रेत का घर जैसे 

इस हर की हक़ीक़त क्या 


नोट-  स्थान की कमी देखते हुए बहुत से माहिए यहा नहीं लिखे जा रहे हैं। उद्देश्य मात्र यह बताना  है कि माहिया 1937 से चल कर आजतक कितनी यात्रा तय कर चुका है और किन किन रंगों में यात्रा कर रहा है ।

माहिया की सब से बड़ी पूँजी उसकी ’लय’ है, उसकी "धुन" है ।बहर और वज़न तो सब माहियों के लगभग एक-सा ही होता है। मगर हर गायक अपनी धुन और लय में अलग अलग अन्दाज़ में गाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण -बाग़ों में पड़े झूले- वाला माहिया का है जो ’यू-ट्यूब ’ पर कई गायकों ने अपने मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है।

 उर्दू साहित्य में माहिया की  यात्रा 1936-37 से शुरु होती है। मगर साहित्य के कालक्रम के अनुसार ’माहिया’ अभी शैशवास्था में ही है। बहुत लम्बा सफ़र तय करना है अभी इसे। यद्यपि बहुत से लोग माहिया लिखने/ कहने की तरफ़ आकर्षित हुए हैं। कभी कभी किसी पत्रिका में कोई "माहिया-विशेषांक’ भी निकल जाता है। यदा कदा माहिया पर 1-2 मुशायरा भी हो जाता है, मगर अभी ग़ज़ल जैसी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है। "फ़ेसबुक" या "व्हाट्स अप " जैसे सोशल मीडिया पर भी ऐसे बहुत कम मंच नज़र आते हैं जो मात्र ’माहिया’ के लिए ही समर्पित हों ।ज़्यादातर मंच ग़ज़ल को ही केन्द्र में रख कर बनाए गए हैं।

 माहिया का अभी  नियमित लेखन नहीं हो रहा है या समुचित प्रचार प्रसार की व्यवस्था नहीं हुई है। मगर जिस हिसाब से और जिस मुहब्बत से लोग माहिया लेखन के प्रति आकर्षित हो रहे है और लोगों की इस में रुचि बढ़ रही है, हमें उमीद है कि माहिया एक दिन अपना मुक़ाम ज़रूर हासिल करेगा।

हमें तो माहिया का भविष्य उज्ज्वल दिख रहा है ।

 

-आनद.पाठक-


उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -70 -[ कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -70 -[ कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ]

विशेष नोट = इस विषय पर और जानकारी के लिए क़िस्त 80 भी देख सकते है --

[ यह  बह्र का विषय तो नहीं है पर पाठकों की सुविधा के लिए और शायरी संबंधित जानकारी 
क़िस्तवार यकजा दस्य्तयाब हो सके  ,इसीलिए इसे यहाँ पर लगा रहा हूँ --सादर ]

आप ने उर्दू शायरी में दो या दो से अधिक अल्फ़ाज़ को जुड़े हुए इस प्रकार देखे होंगे

[क]  दर्द-ए-दिल --ग़म-ए-इश्क़---वहशत-ए-दिल ---पैग़ाम-ए-हक़---ख़ाक-ए-वतन---बाम-ए-फ़लक--जल्वा-ए-हुस्न-ए-अजल --जू-ए-आब---राह-ए-मुहब्बत--- बहर-ए-बेकरां----कू-ए-उलफ़त--दर्द-ए-निहाँ --दिल-ए-नादां ---दौर-ए-हाज़िर -बर्ग-ए-गुल - बाद-ए-बहार---चिराग-ए-सहर  ---शब-ए-फ़ुरक़त---रंग-ए-महफ़िल--दिले-नादां ----साहिब-ए-ख़ाना-- -तीरगी-ए-वहम . क़द्र-ए-ज़ौक़ , ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल . ग़म-ए-दिल ,, शोख़ी-ए-तहरीर .सोज़-ए-निहाँ, आतिश-ए-ख़ामोश ---और  ऐसे ही  बहुत से  ,हज़ारो अल्फ़ाज़

[ख]  ज़ौक-ओ-शौक़ ----सूद-ओ-जियाँ----ख़्वाब-ओ-ख़याल ---जान-ओ-जिगर--बादा-ओ-ज़ाम ---आब-ओ-हवा ----आब-ओ-गिल ---शे’र-ओ-सुखन-- शम्स-ओ-क़मर  ----शैख़-ओ-बिरहमन---- दैर-ओ-हरम 

  और ऐसे ही  बहुत से  ,हज़ारो अल्फ़ाज़

पहले वाले ग्रुप को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ कहते है
दूसरे वाले ग्रुप को  ’वाव-ओ-अत्फ़ ’ कहते हैं

आज हम इन्हीं दो तराक़ीब [तरक़ीब का बहुवचन ] पर बात करेंगे
इन दोनो तरक़ीबों से ग़ज़ल या शे’र की खूबसूरती बढ़ जाती है|

’अरबी" में -इस काम के लिए दूसरी तरकीब है । अरबी में दो शब्द को -अल’- या -उल- से जोड़ते है जैसे अब्द-उल अल्लाह [ अब्दुला ] शम्स-उल-रहमान [ शम्सुर्रहमान ] अज़ीम-उल शान [ अज़ीमुश्शान ] --इसका क़ायदा अलग है| इस पर कभी बाद में चर्चा करेंगे।


हिंदी में  या हिंदी ग़ज़ल में  क़सरा-ए-इज़ाफ़त की  ज़रूरत  नहीं पड़ती कारण कि इस काम के लिए
’संबंध कारक  शब्द  जैसे  -का-- के--की  का प्र्योग करते है  पहले से ही है  मौज़ूद हैं या फिर सामासिक शब्द [ समास वाले शब्द ] जैसे तत्पुरुष समास ,कर्मधारय बहुब्रीह- सामासिक शब्द  मौज़ूद हैं--’आदि

दिल का दर्द ---दिल का ग़म------ख़ुदा का पैगाम--- वतन की मिट्टी---रूप की आभा---सुबह का दीया --जुदाई की शाम

 अत्फ़ की जगह -और - का प्रयोग करते है या फिर ’द्वन्द-समास ’ का 

आग और पानी----चाँद और सूरज ---मन्दिर और मसजिद ---हानि और लाभ
या फिर आग-पानी ---चाँद--सूरज----मन्दिर-मसजिद--हानि-लाभ ---जीवन-मरण--यश-अपयश --आदि

हमारे बहुत से हिंदीदाँ दोस्त कभी कभी  शे’र में या ग़ज़ल में -और- की जगह -औ’-- लिख देते हैं शायद बह्र या वज़न मिलाने के चक्कर में । उर्दू में -औ’ - नाम की कोई चीज़ नहीं होती । आप शे’र में ’और’ ही लिखिए --बह्र में ---और --अपने आप वज़न ले लेगा ।

सच पूछिए तो वस्तुत: यह ’दो-या दो से अधिक फ़ारसी- अल्फ़ाज़ " जोड़ने की तरक़ीब है । और यही तरक़ीब उर्दू वालों ने भी अपना लिया । चूँकि उर्दू में अरबी फ़ारसी तुर्की हिंदी के भी बहुत से शब्द समाहित हो्ते  गए   अत" ’फ़ारसी अल्फ़ाज़ ’ की शर्त दिन ब दिन खत्म होती गई ।अब उर्दू के कोई दो या दो से अधिक अल्फ़ाज़ इसी तरक़ीब से जोड़े जाते हैं । अब तो कुछ लोग /..अरबी -अरबी- /अरबी -फ़ारसी के शब्द / यहाँ तक कि फ़ारसी-हिंदी शब्द जोड़ कर  भी इज़ाफ़त करने लगे है आजकल । जब कि अरबी में दो शब्द जोड़ने का अलग निज़ाम है । ’अलिफ़-लाम’ का निज़ाम ।बाद में चर्चा करेंगे कभी इस पर ।ख़ैर

कसरा-ए-इज़ाफ़त =इज़ाफ़त --इज़ाफ़ा शब्द से बना है  जिसका शाब्दिक अर्थ होता है वॄद्धि या बढोत्तरी और  उर्दू में जिसे ’ज़ेर’ कहते है अरबी में अरबी में उसे ’कसरा’ कहते है
दोनों का काम एक ही है । ज़ेर माने-नीचे । उर्दू में किसी हर्फ़ को हरकत [यानी आवाज़ ,स्वर देने के लिए --ज़ेर--जबर--पेश  के निशान लगाते है } ज़ेर -हर्फ़ के नीचे
’ [ छोटा सा / का निशान ] लगाते है । नीचे लगाते है इसीलिए इसे उर्दू में -ज़ेर- और अरबी में -कसरा- कहते है । यह निशान पहले लफ़्ज़ के आखिरी हर्फ़ के नीचे लगाते है
इस तरक़ीब में जोड़े जाने वाला    पहला लफ़्ज़ संज्ञा [इस्म ] और दूसरा शब्द भी संज्ञा [ इस्म ]हो सकता है
जैसे  साहिब-ए-ख़ाना
ग़म-ए-इश्क़
सरकार-ए-हिन्द
या फिर   पहला शब्द संज्ञा [इस्म] और दूसरा शब्द विशेषण [ सिफ़त ] हो सकता है जैसे
वज़ीर-ए-आज़म
चश्म-ए-नीमबाज़
दिल-ए-शिकस्ता

 तरक़ीब जो भी हो --दूसरा लफ़्ज़ --पहले लफ़्ज़ को qualify or Modify करता है ।

  इसके भी लगाने और दिखाने के तीन नियम है ।
नियम 1-   उर्दू में दो शब्दो के जोड़ने  में अगर पहले शब्द का आखिरी हर्फ़ [ अगर  ’हर्फ़-ए-सही ’ है तो ] कसरा की अलामत ठीक उसी हर्फ़ के ’नीचे’ लगाते है  ज़ेर की शकल में ।

नियम 2- अगर उर्दू  युग्म शब्द [ जुड़ने वाले दो-अल्फ़ाज़] के पहले शब्द का आख़िरी  हर्फ़ अगर हर्फ़-ए-इल्लत का "अलिफ़’ और”वाव’  पर ख़त्म हो रहा है तो  अलिफ़ और वाव के बाद हमज़ा [" ये’ ]का इज़ाफ़ा कर दिया जाता है । यानी हमज़ा का वज़न-1- जुड़ जाता है ।

नियम 3- अगर उर्दू  युग्म शब्द [ जुड़ने वाले दो-अल्फ़ाज़] के पहले शब्द का आख़िरी  हर्फ़ अगर हर्फ़-ए-इल्लत -ई- से ख़त्म हो रहा हो तो अल्फ़ाज़ पर  ’हमज़ा और कसरा ’ लगा कर इज़ाफ़त दिखाते हैं

 [ नोट - घबराइए नहीं । आप को हर्फ़-ए-सही , हर्फ़-ए-इल्लत यह सब जानने की ज़रूरत नहीं और न ही आप इन नियमों के बारे में परेशान  हों ।वह तो बात निकली तो लिख दिया आप के विशेष जानकारी के लिए ।
 हम हिंदी वाले ,ग़ज़ल उर्दू रस्म-उल ख़त  [ लिपि ] में तो लिखते नहीं बल्कि ’देवनागरी लिपि’ में लिखते है । बस आप  समझ लें कि -कसरा-ए-इज़ाफ़त -को -ए- से दिखायेंगे अपने कलाम में ।

हिंदी में कसरा-ए-इज़ाफ़त दिखाने या लिखने  का तरीका-

आप ने [ देवनागरी लिपि में छपे ]अश’आर ज़रूर  देखे होंगे। -- ऐसी तरक़ीब को  कभी कभी  ’रंगे-महफ़िल ’   --दर्दे-दिल ---ग़मे-दिल --जैसे दिखाते हैं
और कहीं कहीं और कभी कभी  इसी चीज़ को ; रंग-ए-महफ़िल ---- दर्द-ए-दिल ---ग़म-ए-दिल --के तरीक़े से भी दिखाते है ।
 तरीक़ा अलग अलग है मगर भाव और अर्थ में कोई फ़र्क़ नहीं है । यह व्यक्तिगत अभिरुचि  ज़ौक़-ओ-शौक़ का सवाल है  कि आप इसे कैसे लिख कर दिखाते हैं । इस [ - ] से ही पता चल जाता है कि
यह  शब्द ’पर कसरा इज़ाफ़त है और इस शब्द के आख़िरी हर्फ़ पर ’कसरा ’ [ यानी -ज़ेर- का निशान [अलामत ] लगा हुआ है ।

वैसे जहाँ तक मेरा सवाल  है मैं  व्यक़्तिगत रूप से  ’ग़म-ए-दिल ’ वाली तरक़ीब ही पसन्द करता हूँ ।

एक बात और ’जानेमन ’ जान-ए-मन ? या जाने-मन ? क्या ? आप बताए ?
मैं तो यही बता सकता हूँ कि यहाँ -’मन-’  हिंदी वाला मन  mood  वाला  मन नही बल्कि फ़ारसी वाला है -मन -मतलब -Me ,Mine वाला है यानी ’मेरी जान "
अब बताइए ’ जानेमन ’ क्या ?
ख़ैर
कसरा ए-इज़ाफ़त  और  शे’र पर अमल--

आप को शायद याद हो [ ------याद हो कि न याद हो ] जब अर्कान की चर्चा कर रहे तो तो एक इस्तलाह [ परिभाषा]  था --’सबब-ए-सक़ील का -" और -’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ का  । वतद-ए-मफ़रूक़ का भी ज़िक्र आया था ।
सबब-ए-सक़ील = यानी वो दो हर्फ़ी जुमला जिसमे दोनो हर्फ़ मुतहर्रिक हों । यानी  दोनो हर्फ़ों पर कोई न कोई ’हरकत [ जबर--ज़ेर---पेश ] लगे हों
मगर उर्दू ज़ुबान का मिज़ाज ऐसा कि उसके हर लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़ ’साकिन’ होता है [ लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़  का मुतहर्रिक  नहीं होता } तो सबब-ए-सक़ील शब्द फिर कौन से होंगे जिसमें दोनों हर्फ़ हरकत वाले हों ?

बस इसी मुक़ाम पर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ की ENTRY होती है । देखिए कैसे ?
ग़म्-ए-दिल् --
ग़म् [ 2 ]  = म् -साकिन् है
दिल् [2]   = ल् -साकिन् है
मगर जब ’ग़म-ए-दिल ’ पढ़ेंगे तो फिर -म्- पर एक हल्का सा वज़न आ जायेगा। हल्का ही सही एक भार [ सक़ील ] आ जायेगा -म्- के तलफ़्फ़ुज़ में फिर म् --साकिन न हो कर मुतहर्रिक का आभास देगा ।यानी
ग़म-ए-दिल में -ग़म-- [ 1 1 ] माना जायेगा  । इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।


खाक्-ए-वतन्  में
ख़ाक् = में -क्- साकिन् है
वतन् = में   -नून् =-साकिन् है
परन्तु
ख़ाक-ए-वतन्  = में  -क- मुतहारिक् का आभास दे रहा है   [ ख़ाक ----वतद-ए-मफ़रूक़= 2 1 ] इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।
यही बात् ’ वाव् -ए-अत्फ़् ’ के साथ भी है ।
जैसे
आब-ओ-गिल [ पानी-मिट्टी ] देखें
आब् = में -ब्- साकिन है
गिल् =ल् -साकिन है
परन्तु
आब-ओ-गिल्   =  मे -ब- मुतहर्रिक् का आभास् देगा- अत्फ़् की तरक़ीब् के कारण् [ आब ----वतद्-ए-मफ़रूक़्  2 1 ] इसी अत्फ़  की वज़ह से ।


एक दो  शे’र देखते हैं तो बात और साफ़ हो जायेगी --
अल्लामा इक़बाल क का एक शे’र है । आप सबने सुना होगा --सितारों के आगे जहाँ और भी हैं -- ग़ज़ल । यह  गज़ल "बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम" में है
यह  भी आप जानते होंगे । यानी   122---122 --  122 --   122 में है ।

कनाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ- बू पर 
चमन और भी  आशियाँ  और भी  हैं 

अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म 
मुक़ामात-ए-आह-ओ- फ़ुगाँ और भी हैं 

 अब हम इसकी तक़्तीअ’ कर के देखेंगे कि ’इज़ाफ़त ’ और अत्फ़’ की  क्या भूमिका होगी ।

1   2   2    / 1 2   2     / 1  2      2    / 1  2   2
 कनाअत / न कर आ /ल  म-ए -रं /ग- ओ-  बू पर 
चमन औ /र भी  आ शियाँ  औ /र भी  हैं 

अगर खो /गया इक /  नशेमन / तो क्या ग़म 
मुक़ामा /त-ए-आ ह-ओ-/ फ़ुगाँ औ/र भी हैं 

यहाँ पर  -आलम-ए-रंग-ओ- बू  को देखते हैं । इसकी तक़्तीअ /-ल मे रं /  1 2 2 / पर की  गई है
और -मुक़ामात-ए-आह-ओ- फ़ुगाँ  की तक़्तीअ  / त आ हो / 1 2 2 / के वज़न पर की गई है

जानते हैं क्यों ?

बह्र और रुक्न की माँग पर शायर को यह इजाजत है कि वह ’कसरा-ए-इज़ाफ़त’  वाले पहले अल्फ़ाज़ के आखिरी हर्फ़ को ’खींच कर [ इस्बाअ’ ] कर पढ़े या ’ खींच कर न पढ़े "
उसी प्रकार "वाव-ओ-अत्फ़  ’ वाले पहले अल्फ़ाज़ के आख़िरी हर्फ़ को ’खींच कर [ इस्बाअ’ ] कर पढ़े या ’ खींच कर न पढ़े "
एक बात और -मुक़ामात - में -त- तो साकिन है तो मुतहर्रिक क्यों लिया ?
 इसलिए कि -त- जिस मुकाम पर है शे’र में -वह मुक़ाम मुतहर्रिक [ फ़ ऊ लुन 1 2 2  में -फ़े- के मुकाम पर है और -फ़े-मुतहर्रिक है रुक्न में   ] है और इस साकिन -त- को ]कसरा-ए-इज़ाफ़त ने उसे मुतहर्रिक कर दिया या मुतहर्रिक का आभास दे रहा है
और -ते -खींच कर नहीं पढ़ा बल्कि -त- की वज़न पर पढ़ा ।

उसी प्रकार आह-ओ-फ़ुगाँ में -ह- को खींच कर पढ़ा --हो - के वज़न पर । शायर की मरजी --शायर को इजाजत है ।
यही बात आलम-ए-रंग के साथ है और  रंग-ओ-बू के साथ है ---। वो मिला कर पढ़े या मिला कर न पढ़े --शायर की मरजी --शायर को इजाजत है ।

{नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

विशेष नोट = इस विषय पर और जानकारी के लिए क़िस्त 80 भी देख सकते है --

REVISED AND REVIEWED ON 16-AUG-2021

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181
akpathak3107 @ gmail.com

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [ बह्र-ए-माहिया ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [बह्र-ए-माहिया]   

[ नोट माहिया क्या है इसका उद्भव और विकास क्या है ,इसके लिए इसी ब्लाग में क़िस्त 85 भी देख सकते है जहाँ मैने विस्तार से चर्चा किया है --आनन्द.पाठक]

  
उर्दू शायरी में माहिया के औज़ान ...

उर्दू शायरी में यूँ तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल ,रुबाई, नज़्म क़सीदा आदि काफ़ी मशहूर है ,इस हिसाब से ’माहिया लेखन’  बिलकुल नई विधा है  जो ’पंजाबी से  उर्दू में आई है लेकिन उर्दू  शे’र-ओ-सुख़न में  अभी उतनी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है

माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है ,वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल  में कजरी ,चैता,फ़ाग,सोहर आदि । माहिया का शाब्दिक अर्थ होता है  प्रेमिका से बातचीत करना ,अपनी बात कहना बिलकुल वैसे ही जैसी ग़ज़ल या शे’र में कहते हैं ।दोनो की रवायती ज़मीन मानवीय भावनाएँ और विषय एक जैसे ही  है -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा,गिला,शिकायत,रूठना,मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन ,सामाजिक विषय पर भी कहे जाने लगे।

माहिया पर जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने काफी शोध और अध्ययन किया है और काफी माहिया कहे हैं । उर्दू में माहिया के सन्दर्भ में उनका काफी योगदान है ।आप ने  माहिया के ख़ुद  के अपने संग्रह भी निकाले है आप पाकिस्तान के शायर हैं जो बाद में जर्मनी के प्रवासी हो गए।आप ने "उर्दू में माहिया निगारी" नामक किताब में माहिया के बारे में काफी विस्तार से लिखा है ।

हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया क़मर जलालाबादी ने लिखा [हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958]  [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है]

" तुम रूठ के मत जाना    
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना


यूँ हो गया बेगाना 
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना

यह माहिया है ।
बाद में हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’ [ दिलीप कुमार ,वैजयन्ती माला अभिनीत] में साहिर लुध्यानवी ने कुछ माहिया लिखे थे

दिल ले के  दगा देंगे     
यार है मतलब के 
 देंगे तो ये क्या देंगे 

दुनिया को दिखा देंगे         
यारो के पसीने पर  
हम खून बहा देंगे

यह माहिया है

--------
माहिया 3-लाइन की [जैसे ;जापानी विधा ’हाइकू’ या हिन्दी का त्रि-पटिक’ छन्द। ] एक शे’री विधा है  जो बह्र-ए-मुतदारिक [212- फ़ाइलुन] से पैदा हुआ है  जिसमे पहला और तीसरा मिसरा  आपस में  ’हमक़ाफ़िया ’ होती है दूसरा मिसरा   ;हमक़ाफ़िया’ हो ज़रूरी नहीं ।अगर है तो मनाही भी नही
पहली और तीसरी पंक्ति का एक ’ख़ास’ वज़न होता है और दूसरी पंक्ति में [ पहले और तीसरे मिसरा से ] एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । पुराने वक़्त में तीनो मिसरा एक ही वज़न का लिखा जाता रहा । मगर अब यह तय किया गया कि दूसरे मिसरा में -पहले और तीसरे मिसरे कि बनिस्बत एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] कम होगा।
माहिया के औज़ान विस्तार से अब देखते है । यदि आप ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल समझ लिया है तो माहिया के औज़ान समझने में कोई परेशानी नहीं ।आप जानते हैं कि ’फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़इ’लुन [ 112] होता है जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम   3- मुतहर्रिक एक साथ आ गए] ख़ब्न एक ज़िहाफ़ होता है } अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है [जैसे फ़ाइलुन में ’फ़ा--इलुन]  तो सबब--ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन [जैसी फ़ा का-अलिफ़-] को गिराने के अमल को ’ख़ब्न ’ कहते है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते ।अगर ’फ़ाइलुन 212] में पहला अलिफ़ गिरा दें तो बचेगा फ़ इलुन [112] -यही मख़्बून है फ़ाइलुन का।
[1] पहले और तीसरे मिसरे की मूल बह्र [मुतक़ारिब म्ख़्बून]
       --a---------b----------c-------/ c'
 फ़ इलुन-        -फ़ इलुन-    -फ़ इलुन  /फ़ इलान
 1 1  2--------1  1   2-----1 1 2    / 1 1 2 1 
अब इस वज़न पर  तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है  और इस से 16-औज़ान बरामद हो सकते है । देखिए कैसे । आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं

   फ़ इलुन-        -फ़ इलुन-    -फ़ इलुन
    --a----------b------------c
[ A ] 1 1  2---1  1   2--  ---1 1 2         मूल बह्र   -no operation

[ B ]  22-------112--------112 operation on  -a- only

[C ]    112----  -22------   --112 operation  on -b- only

[D  ]   112----112-------22 operation on -c- only

[E ]     22-------22----------112 operation on -a & -b-

[F  ]     112---    22-------22 operation on -b-&-c-

[G ]    22--     -112--------22       operation on  -c-& -a-

[H ]   22--- ---22----------22 operation on -a-&-b-&-c

इस प्रकार माहिया के पहले मिसरे और तीसरे मिसरे के लिए 8-औज़ान बरामद हो गए।यहाँ पर कुछ ध्यान देने की बातें--
[1] यह सभी आठो वज़न आपस में बदले जा सकते है [बाहमी मुतबादिल हैं] कारण कि सभी वज़न का  मात्रा योग -12- ही है
[2] मूल बह्र का हर रुक्न ’फ़ अ’लुन [112 ] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [-फ़े-ऐन-लाम-] एक साथ आ गए हैं अत: हर Individual रुक्न [ या  एक साथ दो या दो से अधिक रुक्न पर भी एक साथ ]पर ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल हो सकता है और एक नई रुक्न [ फ़ेलुन =22 ] बरामद हो सकती है  जिसे हम यहाँ ’मख़्बून मुसक्किन" कहेंगे  क्योंकि यह  ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है
[3] अब आप चाहें तो ऊपर की अलामत 22 की जगह ’मख़्बून मुसक्किन और 112 की जगह "फ़अ’लुन" लिख सकते है

एक बात और
आप जानते हों कि अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 8-औज़ान और बरामद हो सकते हैं
जिसे हम 1121 को ’मख़्बून मज़ाल ’ कहेंगे
और           221 को ;मख़्बून मुसक्किन मज़ाल ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है
अत: पहले और तीसरे मिसरे के कुल मिला कर [8+8 ]=16  औज़ान बरामद हो सकते है
-------
दूसरे मिसरे की मूल  बह्र [यह वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से निकली हुई है 
--a----------b--------c-----/ c'
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल /फ़ऊलु  =21--------121-----1 2      / 121 [ इसका नाम मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ /मक़सूर है] कुछ आप को ध्यान आ रहा है ? जी हाँ . बहर-ए-मीर की चर्चा करते समय इस प्रकार के वज़न का प्रयोग किया था।
ख़ैर
ध्यान से देखे --a--& --b  और    --b--& ---c  यानी दो-दो रुक्न मिला कर 3- मुतहर्रिक [-लाम--फ़े---ऐन] एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से 8-मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते हैं । देखिए कैसे?
--a----------b--------c-----
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल----मूल बह्र
21--------121-------12--
वही बात -आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं

[I ]  21-----121-----12   मूल बह्र  -no operation

[J ]  22-----21----12        operation on  -a & b-

[K ] 21----122----2           operation on    -b & c-

[L ] 22-----22----2           operation  on  a--b---c

इस प्रकार दूसरे मिसरे के 4-वज़न बरामद हुए
जैसा कि आप जानते हैं अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 4-औज़ान और बरामद हो सकते हैं।
आप उसे  i'--j'---k'--l' लिख सकते है -जिससे रुक्न पहचानने में सुविधा होगी
इस प्रकार दूसरे मिसरे के भी 4+4=8 औज़ान बरामद हो गए

जिसमे  हम 121  को फ़ऊल [[मक़्सूर] कहेंगे
और           21 को ;फ़ाअ’[-ऐन साकिन] को " मक्सूर मुख़्न्निक़" ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है। मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि 22 या 122 के बजाय रुक्न का नाम ही लिखना ही श्रेयस्कर होगा कारण कि आप को यह पता चलता रहे कि मिसरा के किस मुक़ाम पर साकिन होना चाहिए और किस मुक़ाम मुतहर्रिक ।

आप घबराइए नहीं --ये 24-औज़ान आप को रटने की ज़रूरत नहीं -बस समझने के ज़रूरत है --जो बहुत आसान है
[1] ज़्यादातर माहिया निगार पहले और तीसरे मिसरे के लिए  G & H का ही प्रयोग करते है , और मिसरा के अन्त में Additional  साकिन वाला केस तो बहुत जी कम देखने को मिलता है । बाक़ी औज़ान का प्रयोग कभी कभी ही करते है --जब कोई मिसरा ऐसा फ़ँस जाये तब
[2]  दूसरे मिसरे के लिए K & L का ही प्रयोग करते हैं
[3]  प्राय: हर मिसरा के आख़िर मे -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़- [2]  या  इलुन [12]  आता है यानी मिसरा दीर्घ [2] पर ही गिरता है

माहिया के औज़ान के बारे में कुछ दिलचस्प बातें

[1] अमूमन उर्दू शायरी में --कोई शे’र या ग़ज़ल एक ही बहर या वज़न में कहे जाते है ,मगर यह स्निफ़ [विधा] दो बह्र इस्तेमाल करती है --यानी पहली पंक्ति में --मुतदारिक मख़्बून की ,और दूसरी पंक्ति -मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़
[2]  यह स्निफ़ ’सालिम’ रुक्न इस्तेमाल नहीं करती --बस सालिम रुक्न की मुज़ाहिफ़ शकल ही इस्तेमाल करती है
[3]  चूँकि यह स्निफ़[विधा] मुज़ाहिफ़ शजक ही इस्तेमाल करती है अत: 3-मुतहर्रिक एक साथ आने के मुमकिनात है--चाहे एकल रुक्न में या दो पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न मिला कर }फिर तस्कीन या तख़्नीक़ का अमल हो सकता है इन रुक्न पर।
[4] हालाँ कि दूसरी लाइन में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है बनिस्बत पहली या तीसरी लाइन से ---शायद यह कमी ऎब न हो कर -यही माहिया को  आहंग ख़ेज़ बनाती है--जैसे गाल में पड़े गढ्ढे नायिका के सौन्दर्य श्री में वॄद्धि देते है।

अब कुछ माहिया और उसकी तक़्तीअ देख लेते है
[1] "  तुम रूठ के मत जाना    
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
--क़मर जलालाबादी 
तक़्तीअ देखते हैं -
2    2   /  1 1 2     / 2 2
तुम रू/ ठ के मत / जाना      फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन  =  G
2       2 / 2   2     / 2
मुझ से /क्या शिक/वा            फ़े’लुन----फ़े’लुन   ---फ़े =L
2    2 /  1 1 2  / 2 2
दीवा/ ना है  दी /वाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन =G

[2]    दिल ले के  दगा देंगे     
यार है मतलब के 
 देंगे तो ये क्या देंगे 
                --साहिर लुध्यानवी

तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
   2   2  / 1   1 2   /  2 2   22---112---22 = G
 दिल ले /के  द गा  /दें गे     
2  1   / 1 2   2   / 2 21---122---2 =K
यार  /है मत लब /के 
2  2  / 1 1 2      / 2 2 22---112---22 = G
 देंगे/   तो ये क्या /देंगे 

[3]   अब इस हक़ीर का भी एक माहिया बर्दास्त कर लें

जब छोड़ के जाना था
क्यों आए थे तुम?
क्या दिल बहलाना था?

अब इसकी तक़्तीअ’ भी देख लें
2   2      / 1 1  2  / 2 2  =22---112---22 = G
जब छो /ड़ के जा /ना था
2     2    / 2  2 /2 = 22---22---2 =L
क्यों आ /ए थे/ तुम?
2     2     /  2  2   / 2 2 = 22---22---22 =H
क्या दिल/ बह ला /ना था?

एक बात चलते चलते

चूँकि उर्दू में माहिया निगारी एक नई विधा है --इस पर शायरों ने बहुत कम ही कहा है--लगभग ना के बराबर। कभी कहीं कोई शायर तबअ’ आज़माई के लिहाज़ से छिट्पुट तरीक़े से यदा-कदा लिख देते हैं
उर्दू रिसालों में भी इसकी कोई ख़ास तवज़्ज़ो न मिली ---मज़्मुआ --ए-माहिया तो बहुत कम ही मिलते है। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने माहिया पर एक मज़्मुआ " ख़्वाबों की किरचें "-मंज़र-ए-आम पे आया है।
उमीद करते है कि हमारे नौजवान शायर इस जानिब माइल होंगे और मुस्तक़बिल में माहिया पर काम करेंगे और कहेंगे । इन्ही उम्मीद के साथ---

चलते चलते एक बात और--
जो सज्जन इस तवील [ लम्बे] रास्ते से नही जाना चाहते उनके लिए एक आसान रास्ता भी है माहिया के बह्र के बारे में } और वह यह है --

पहली लाइन = 112---112---112-         = 12 मात्रा
दूसरी लाइन =  21--121--12                = 10 मात्रा
तीसरी लाइन = 112--112--112            = 12 मात्रा

और इसमे कोई भी दो ADJACENT  1 1 को 2 से कभी भी कहीं भी बदल सकते है 

पहली और तीसरी लाइन हम क़ाफ़िया कर दें । बस माहिया हो गई


अस्तु
{नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 1 [ बह्र-ए-मुतक़ारिब ]

[disclaimer clause इस मज़्मून  का कोई भी हिस्सा हमारा नहीं है और न ही मैने कोई नई चीज़  की खोज की है ।ये सारी चीज़े उर्दू के अरूज़ की किताबों में ब आसानी  मिल जाती है । यह बात मैं इसलिए भी लिख रहा हूं कि बाद में मुझ पर सरक़ेह (चोरी) का इल्जाम न लगे

[अपने हिन्दी दां दोस्तों की ख़ातिर  अरूज़  पर मज़्मून [ आलेखों] का एक सिलसिला शुरु कर रहा हूं ,,,..जो ग़ज़ल कहने का शौक़ फ़र्माते हैं  या जौक़-ओ- शौक़ [ काव्य रसिकता] फ़रमाते हैं, शायद वो लोग इस से कुछ मुस्तफ़ीद (लाभान्वित) हो सकें ।
बा अदब....]

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद  ’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब आशना  हूँ

  ख़ुदा इस कारफ़र्माई की तौफ़ीक़ अता करे । 

दि कोई पाठकगण इन लेखों का या सामग्री का कहीं उपयोग करना चाहें तो नि:संकोच ,बे-झिझक प्रयोग कर सकते हैं अनुमति की आवश्यकता नहीं है  ।
   -आनन्द पाठक-                                                                                                       

               -------------------------------------------------------------------

क़िस्त 1 : बह्र-ए-मुतक़ारिब्

बुनियादी रुक्न ; फ़ऊलुन =  فعولن 

 अलामत          :  1 2  2


इस से पहले, उर्दू की सालिम बह्रों का ज़िक्र कर चुका हूं उसी में से एक लोकप्रिय बह्र है " बह्र-ए-मुतक़ारिब " जिसका बुनियादी रुक़्न है ’फ़ ऊ लुन्’ [फ़े’लुन भी कहते हैं] और जिसे हम अलामती वज़्न  122. से दिखाते हैं  । इसे 5-हर्फ़ी रुक्न भी कहते हैं ।यानी-- फ़े--ऐन--वाव--लाम--लुन = 5 हर्फ़]’ ।

अरूज़ में  पहले 7-हर्फ़ी अर्कान जैसे मुफ़ाईलुन [1222]-- फ़ाइलातुन [ 2 12 2] --मुसतफ़इलुन [ 2 2 1 2 ]
मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ] ---मफ़ाइ ल तुन [ 12 1 1 2 ] जो क्रमश: सालिम बह्र के बुनियादी अर्कान हैं [---हजज़--- रमल --रज़ज -कामिल--वाफ़िर -अमल में आईं । 
कहते हैं 5 हर्फ़ी अर्कान  फ़े’लुन [1 2 2 ] और फ़ाइलुन [2 1 2 ] बाद  में  हिन्दी गीतों  के माध्यम से  वजूद  में आई । और उसमें भी ,फ़ाइलुन रुक्न [मुतदारिक बह्र]  ,अपेक्षाकृत मुतक़ारिब से  पहले आई । ख़ैर  जो भी हो--

ये तमाम सालिम बह्र सबब (2- हर्फ़ी लफ़्ज़) और वतद (3-हर्फ़ी लफ़्ज़) की  आवॄति से बनती है । हिन्दी में ग़ज़ल कहने के लिए इस बह्र के बारे में अभी इतना ही जानना काफी है ।

इससे पहले की हम बह्र-ए-मुतक़ारिब पर बात करें , अरूज़ की  कुछ बुनियादी  परिभाषाओं पर बात कर लेते है जिससे आगे की बात समझने में आसानी होगी।

मुतहर्रिक हर्फ़ = वह हर्फ़ जिस पर हरकात [ जबर--ज़ेर--पेश- ]लगे हों उसे मुतहर्रिक कहते हैं

साकिन हर्फ़    = वह हर्फ़ जिस पर कोई ’हरकत- न लगा हो ।यानी तलफ़्फ़ुज़ में शान्त हो --कोई हरकत न दी                              जाए ।
उर्दू में हर लफ़्ज़ ;हरकत हर्फ़ से शुरु होता है  यानी मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर ख़त्म होता है । दूसरे शब्दों में उर्दू का कोई हर्फ़ ’साकिन’ से शुरु नहीं होता  । किसी लफ़्ज़ के पहले हर्फ़ पर कोई न कोई ’हरकत’ [ यानी ज़बर ,जेर.पेश  की ] हरकत ज़रूर होगी । अगर कोई हरकत दिखाई न गई हो  तो ’जबर’ की हरकत तो ज़रूर होगी  जो  आम तौर पर   दिखाया  नहीं जाता।  जैसे ’कमल’ --सफ़र--अदब -क़मर --यानी पहले हर्फ़ -क-स- अ--क़- पर ’जबर’ की हरकत है  इसी कारण ऐसे  हर्फ़’मुतहर्रिक’ कहलाते हैं - हरकत शुदा हर्फ़] 
हिंदी में 
क= क् + अ[स्वर] = आप  क् [ हलन्त लगा हुआ -क-को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -क- को मुतहर्रिक]
स = स् + अ[स्वर]   = आप  स् [हलन्त लगा हुआ-स- को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -्स- को मुतहर्रिक]
क़= क़्  +अ [स्वर ] = आप क़् [हलन्त लगा-क़- हुआ को साकिन समझ लें और स्वर युक्त  -क़- को मुतहर्रिक]
 
उसी प्रकार हरूफ़-ए-तहज्जी [ उर्दू  हर्फ़ का  वर्णमाला  ] में हर हर्फ़ मूलत: साकिन होता है । हरकत [स्वर] तो बाद में देते हैं जब  कोई  लफ़्ज़ बनाते हैं ।

उर्दू लफ़्ज़ को या कलमा को अरूज़ के लिहाज़ से कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है । जैसे--सबब--वतद--फ़ासिला वग़ैरह ।
सबब : -दो हर्फ़ी जुमला या कलमा को सबब कहते हैं ।
उर्दू में सबब  2-क़िस्म की होती  हैं ।

 (1) सबब-ए-ख़फ़ीफ़    वज़्न 2
 यानी वो दो हर्फ़ी जुमला या कलमा या लफ़्ज़  जिसमें पहला हर्फ़ [हरकत ]  जिसे-मुतहर्रिक -कहते हैं  दूसरा हर्फ़ [साकिन] हो जैसे अब्---तब्---कल्--गा--जा---वग़ैरह वग़ैरह। जिसमें पहला हर्फ़ -अ- त-क-ग-ज-  आदि  अरूज़ की भाषा में  मुतहर्रिक है  और दूसरा हर्फ़ -ब- ल-या अलिफ़्- साकिन है
।साकिन को आप संस्कृत का ’हलन्त वर्ण’ समझ लें । 
उसी प्रकार 
फ़ा---तुन्--लुन्---मुस्----तफ़्---  वग़ैरह  ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ का उदाहरण समझ सकते हैं।फ़ौरी सुविधा के लिए  इसे संख्या की अलामत  -2- से दिखाते हैं।

(2)  सबब-ए-सकील     वज़्न 2: 

 यानी वो दो हर्फ़ी जुमला , कलमा या लफ़्ज़  जिसमें पहला हर्फ़ [मुतहर्रिक ] और दूसरा हर्फ़ भी  मुतहर्रिक हो।
और आप जानते है कि उर्दू का हर लफ़्ज़ मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर गिरता है यानी मुतहर्रिक पर नहीं गिरता ।तो  उर्दू में ऐसा  कोई लफ़्ज़  ही नहीं  है जिसका आखिरी हर्फ "मुतहर्रिक" हो। तो फ़िर? 
जी आप बिल्कुल सही हैं मगर फ़ारसी में ऐसी कुछ  तरक़ीब है [जैसे ’कसरा-ए-इज़ाफ़त या  वाव-ए-अत्फ़ -जिसकी चर्चा बाद में करेंगे]   जिसके प्रयोग से इनके पहले आने वाले हर्फ़ पर  पर ज़रा सा जोर आ जाता है या ज़ोर पड़ जाता है जिस से उस हर्फ़ पर ’हरकत’ [हल्का ही सही ] आ जाती है । यूँ दूसरा साकिन हर्फ़ मुतहर्रिक तो नहीं बन जाता मगर ’मुतहर्रिक -सा " आभास ज़रूर देता है ।
यूँ तो अकेले लफ़्ज़ जैसे

दिल्  = द--मुतहर्रिक् और् ल् साकिन्
ग़म् = ग़ -मुतहर्रिक्  और  म्  साकिन्
दर्द्  = पहला द-मुतह्र्रिक और दूसरा द्-साकिन
जान् = ज- मुतहर्रिक और  न्-साकिन

---आदि के आख़िरी हर्फ़ -ल्-  म्- द्- न्  तो  ’साकिन’ है पर जब हम इसे युग्म शब्द की तरह ’कसरा-ए-इज़ाफ़त या वाव-ए- अत्फ़ लगा कर बोलेंगे तो यही हर्फ़ भारी आवाज़ की तरह [एक ठहराव] एक हरकत के साथ सुनाई देंगे जैसे

ग़म-ए-दिल
दिल-ए-नादान
रन्ज़-ओ-ग़म
रंग-ए-महफ़िल
यानी :इज़ाफ़त’ अत्फ़ के ठीक पहले आने वाला ( यानी सामने वाला हर्फ)  ’मुतहर्रिक ’ की सी feeling  देगा
इस स्थिति में
ग़म [1 1] ---सबब-ए-सक़ील का वज़न देगा
दिल[1 1 ]----तदैव-
रंज़  [2 1 ] ---तदैव-
रंग   [2  1]  -तदैव-


वतद (वतद का जमा अवताद ) के 3 किस्में है
(1) वतद-ए-मज़्मुआ      वज़्न 12
(2) वतद-ए-मफ़्रूक़        वज़्न 21
(3) वतद-ए-मौक़ूफ़       वज़्न 111

इन सब बुनियादी इस्तिहालात (परिभाषाओं) का ज़िक्र मुनासिब मुकाम पर समय समय पर करते रहेंगे.उर्दू स्क्रिप्ट् में यहां दिखाना तो मुश्किल है अभी तो बस इतना  ही समझ लीजै कि ’सबब’ का वज़्न 2 या [1 1] और वतद का वज़्न (12) या (21) या 1 1 1 होता है

फ़ऊ लुन्  = वतद + सबब
=  (फ़े ऎन वाव )+ (लाम नून)
= ( 1 2) +(2)     [नोट करें ;-फ़े का वज़्न 1 और ऎन और वाव एक साथ लिखा और बोला जायेगा तो  वज़्न 2)
            = 122   यह बह्र मुतक़ारिब की मूल रुक़्न है
यह रुक़्न अगर किसी
मिसरा  में  यही रुक्न 2 बार और शे’र में 4 बार आता है तो उसे 
बह्र-ए-मुतक़ारिब ’मुरब्बा’ सालिम कहेंगे (मुरब्बा=4)
-----     3  बार -------    6 बार आता है तो उसे बह्र-ए-मुतक़ारिब ’मुसद्दस’  सालिम कहेंगे(मुसद्दस=6)
---------  4 बार .................8 बार आता है तो उसे बहर-ए-मुतक़ारिब ’मुस्समन’ सालिम कहेंगे(मुसम्मन=8)

--------   8 बार ...............16 बार आता है तो इसे भी , मुस्समन’ ही कहते है बस  उसमें ’मुज़ाइफ़’ लफ़्ज़.मुसम्मन से पहले.जोड़ देते है जिससे यह पता चले कि यह ’मुस्समन’ की दो-गुनी की हुई बहर है यानी मुसम्मन मुज़ाइफ़
खैर
यह बह्र इतनी मधुर और आहंगखेज़ (लालित्य पूर्ण ) है कि  इस बह्र में बहुत से शो’अरा नें बहुत अच्छी और दिलकश ग़ज़ल कहे  हैं।

खुमार बाराबंकी साहब की इसी बह्र में एक गज़ल है  आप भी मुलाहिज़ा फ़र्मायें
मत्ला पेश है

न हारा है इश्क़ और,न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है ,हवा चल रही है

्तक़्तीअ  पर बाद में जाइएगा पहले इस शे’र की शे;रियत देखिए .क्या बात कही है ..इश्क़ और दुनिया ...दिया और हवा सब अपना अपना काम कर रहें है बग़ैर अन्जाम की परवाह किए बग़ैर

खैर इसकी तक़्तीअ पर आते है

122    /  122 /122    /122
न हारा/ है इश्क़ और/न दुनिया/थकी है

122    /122/   122  /122
दिया जल/रहा है/हवा चल/ रही है

इसलिए कि अगर मिसरा को बह्र और वज़्न में पढना है तो ’है’ को दबा कर (मात्रा गिरा कर कि 1 का वज़्न आये) पर  पढ़ना  पढ़ेगा यानी मुतहर्रिक के तौर पर [ वैसे भी -है- मुतहर्रिक ही है ।
[-"इश्क़ और '- को 122 के  वज़न पर  पढ़ना पड़ेगा यानी ’इश्क़’ को  ’इश्’ +[क्+ और]  में "और" को "अर’  की वज़न पर पढ़ना पड़ेगा जिससे -क् अलिफ़् के स्ंयोग् से -क- [ मुतहर्रिक् हो जाएगा और् -र्-तो साकिन है ही।
अत: "इश्क़् और् "  का वज़न 1 2 2 का ही आयेगा।

एक बात और
इस शे’र में 122 की आवॄति 8-बार हुई है(यानी एक मिसरा में 4 बार आया है) अत: यह मुस्समन(8) हुआ
चूंकि 122 अपनी मूल स्वरूप (बिना किसी बदलाव के बिना किसी काट-छाँट के पूरा का पूरा ,गोया मुसल्लम)में हर बार रिपीट् हुआ अत्: यह "सालिम’ बहर हुआ
अत: इस बहर का नाम -हुआ "बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम’
चन्द अश’आर अल्लामा  इक़बाल साहब के लगा रहा हूं बहुत ही मानूस(प्रिय) ग़ज़ल है

सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं

कनाअत न कर आलमे-रंगो-बू पर
चमन और भी  आशियां और भी हैं

तू तायर है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमां और भी है

इन अश’आर की शे’रिअत देखिए और महसूस कीजिए ..यहां काफ़िया की तुकबन्दी नहीं रदीफ़ का मिलान नहीं शे’र का वज़्न (गुरुत्व) और असरपज़ीरी  [प्रभाव] देखिए और फिर देखिए की हम लोगों की गज़ल या शे’र कहां ठहरते हैं (ऐसी ग़ज़ल के मुक़ाबिल \
अब इसके तक़्तीअ पर एक नज़र डालते हैं

122    /122    /122    /122                =  122  -122--122--122
सितारों /से आगे /जहाँ औ /र भी हैं

1   2    2   / 1  2   2   /   1  2    2/  1 2 2  = 122--122--122--122
अभी इश्/ क के इम्/ ति हाँ औ/ र भी हैं
    (इश्क़ को ’इश् क’ की वज़न पर पढ़ें और ’इम्तिहां’ को ’इम’- ’ति’-हाँ- की वज़्न  पर पढ़ें क्योंकि बहर की यहां पर यही माँग है)

क़नाअत /न कर आ/लमे-रन् / ग बू पर [ यहाँ ग [ गाफ़ -अत्फ़् के कारण मुतहर्रिक हो गया ]
चमन औ/र भी आ/शियां  औ/र भी हैं

तू तायर/ है परवा/ज़ है का/म तेरा
तिरे सा/मने आ/समां औ/र भी हैं

यहां भी ’से’ और ’है’ देखने में तो वज़न 2 का लगता है लेकिन इसे 1 की वज़्न पे पढ़्ना होगा(यानी मात्रा गिरा कर पढ़ना होगा) कारण कि बहर की यही मांग है यहां पे।यह भी बह्र-ए-मुत्क़ारिब मुसम्मन सालिम की मिसाल है कारण वही कि इस बह्र में भी सालिम रुक्न( फ़ ऊ लुन 122) शे’र में 8-बार (यानी मिसरा में 4-बार) प्रयोग हुआ है

इसी सिलसिले में और इसी बहर में चन्द अश’आर इस ख़ादिम खाकसार का भी बर्दास्त कर लें
122    /122    /122 /122
खयालों /में जब से/ वो आने/ लगे हैं
122     /122       122  / 122
हमीं ख़ुद /से ख़ुद को /बेगाने/ लगे हैं

122    /122        /122  /122
वो रिश्तों/ को क्या ख़ा/स तर्ज़ी/ह देते
122      /122    /122  /122
जो रिश्तों /को सीढ़ी /बनाने /लगे हैं

122     /122     /122    /122
अभी हम/ने कुछ तो /कहा भी /नहीं है
122   /  122       /122/ 122
इलाही / वो क्यों मुस् / कराने / लगे  हैं   (मुस्कराने =मुस कराने की तर्ज़ पे पढ़े)
ये भी मुतकारिब मुसम्मन सालिम बह्र है


कई पाठकों ने लय (आहंग) पर भी समाधान चाहा है.कुछ लोगों की मानना है कि अगर लय (आहंग) ठीक है तो अमूमन ग़ज़ल बहर में होगी। मैं इस से बहुत इत्तिफ़ाक़ (सहमति) नहीं रखता ,मगर हां,अगर ग़ज़ल बह्र में है तो लय में ज़रूर होगी ।कारण कि रुक्न और बह्र ऐसे ही बनाये गयें हैं कि लय अपने आप आ जाती है ’फ़िल्मी गानों में जो ग़ज़ल प्रयोग किए गये हैं उसमें लय भी है ..सुर भी है..ताल भी है ..तभी तो दिलकश भी है
उदाहरण के लिए फ़िल्म का एक गीत लेता हूँ आप सब ने भी सुना होगा इसकी लय भी सुनी होगी इसका संगीत भी सुना होगा(फ़िल्म "कश्मीर की कली का एक .गाना है]

इशारों इशारों में दिल लेने वाले ,बता ये हुनर तूने सीखा कहां से
निगाहों निगाहों से जादू चलाना ,मेरी जान सीखा है तूने जहाँ से

अब मैं इस की तक़्तीअ कर रहा हूं
122   /122  /  122   /  122  / 122  / 122  /122    /122
इशारों /इशारों/ में दिल ले /ने वाले /,बता ये/ हुनर तू/ने सीखा /कहां से
122   /122    /122   /122  / 122  /  122 /  122  /122
निगाहों /निगाहों /से जादू /चलाना ,/मेरी जा/न सीखा/ है तूने /जहाँ से

जब आप ये गाना सुनते हैं तो आप को लय कहीं भी टूटी नज़र नही आती...क्यो?
क्यों कि यह मतला सालिम बहर में है और सही वज़न में हैं
यहां ’में’ ’नें’ ’से’ मे’ ’है’  देखने में तो वज़न 2 लगता है लेकिन बहर का तक़ाज़ा है कि इसे 1-की वज़न में पढ़ा जाय वरना सुर -बेसुरा हो जायेगा..वज़न से ख़ारिज़ हो जायेगा (इसी को उर्दू में मात्रा गिराना कहते हैं) मेरी को ’मिरी’ पढ़ेंगे इस शे’र में
ऐसा भी नहीं है कि जहाँ आप ने ’में’ ’नें’ ’से’ मे देखी मात्रा गिरा दी ,वो तो जैसे ग़ज़ल की बह्र मांगेंगी वैसे ही पढ़ी जायेगी
 ऊपर के गाने में रुक़्न शे’र में 16-बार यानी मिसरा में 8-बार प्रयोग हुआ है अत: यह 16-रुकनी शे’र है मगर है मुस्समन ही
अत: इस पूरी बहर का नाम हुआ,.....बहर-ए-मुक़ारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम
आप भी इसी बहर में शे’र कहें ..शायद कुछ बात बने..(शे’र


अभी हम ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’ सालिम पर ही चर्चा करेंगे जब तक कि ये बह्र आप के ज़ेहन नशीन न हो जाय। इस बह्र के मुज़ाहिफ़ (रुक्न पे ज़िहाफ़ ) शक्ल की चर्चा बाद में करेंगे
 यह ज़रूरी नहीं कि आप ’मुसम्मन’सालिम (शे’र मे 8 रुक्न) में ही  ग़ज़ल कहें
आप चाहें तो मुसद्द्स सालिम (शे’र में 6 रुक्न) में भी अपनी बात कह सकते है
मैं मानता हूँ कि मुरब्ब सालिम (शे’र में 4 रुक़्न) में अपनी बात कहना मुश्किल काम है मगर असम्भव नहीं है अभी तक इस शक्ल के शे’र मेरी नज़र से गुज़रे नहीं है.अगर कभी नज़र आया तो इस मंच पर साझा करुंगा
मगर बह्र-ए-मुतक़ारिब की मुसम्मन शक्ल इतनी मानूस (प्रिय) है कि अज़ीम शो’अरा (शायरों) ने इसी शक्ल में बहुत सी ग़ज़ल कही है। मैं इसी बहर की यहां 1-ग़ज़ल लगा रहा हूँ। यहां लगाने का मक़सद सिर्फ़ इतना है कि लगे हाथ हम-आप शे’र की मयार (स्तर) और उसके शे’रियत के bench mark से भी वाकिफ़ होते चलें और यह देखें कि हमें इस स्निफ़ (विधा) में और मयार में कहाँ तह जाना है ।तक़्तीअ आप स्वयं कर लीजिएगा .एक exercise भी हो जायेगी

अल्लामा  इक़बाल साहब की एक दूसरी  ग़ज़ल लगा रहा हूं ।आप ग़ज़ल पढ़े नहीं सिर्फ़ गुन गुनायें और दिल में महसूस करें

इसकी बुनावाट देखिए ,मिसरों का राब्ता(आपस में संबन्ध) देखिए अश’आर की असर पज़ीरी(प्रभाव) देखिए और इसका लय (आहंग) देखिए और फिर लुत्फ़ अन्दोज़ होइए

122/122//122/122
तिरे इश्क़ का इंतिहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख ,क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र आज़मा चाहता हूँ

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

ज़रा-सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना
वही लनतरानी सुना चाहता हूँ

कोई दम का मेहमां हूं ऎ अहले-महफ़िल
चिराग़े-सहर हूँ  बुझा चाहता हूँ

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बेअदब हूँ  सज़ा चाहता हूँ

नोट : इश्क़ को  ’इश् क (2/1) की वज़न में पढ़े
     ’इन्तिहा’ को इन् तिहा (2/12) की वज़्न् पे पढ़ें

वादा-ए-बेहिजाबी  =पर्दा हटाने का वादा
लनतरानी       =शेखी बघारना
चिराग़-ए-सहर    =भोर का दीपक
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आप कोशिश करेंगे तो आप भी इस बह्र में शायरी कर सकते हैं।

[नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb    8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

[Reveiwed  by Sri Ram Awadh Vishwakarma ji 
 on 26-09-21]






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