Sunday, May 21, 2023

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त :84 : 8-हर्फ़ी अर्कान पर एक चर्चा

 

8-हर्फ़ी अर्कान : एक बातचीत

हम अरूज़ और बह्र में 5-हर्फ़ी सालिम अर्कान और 7- हर्फ़ी सालिम अर्कान देख चुके हैं। यानी 

5-हर्फ़ी सालिम अर्कान :- फ़ऊलुन [122} और फ़ाइलुन [ 212 ]

7- हर्फ़ी सालिम अर्कान : मफ़ाईलुन [1222]---- फ़ाइलातुन [ 2122]---मुसतफ़इलुन [2212]---मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2] ---मुफ़ाइलतुन [ 1 2 1 1 2 ] ---मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1 ] 

यानी 5-हर्फ़ी सालिम अर्कान की संख्या = 2

और 7- हर्फ़ी सालिम अर्कान की संख्या = 6

कुल मिला कर 8 सालिम अर्कान है मगर सालिम बह्र सात ही बनती है---कारण आप जानते होंगे।

आप यह भी जानते होंगे कि यह सारे सालिम अर्कान -सबब -[ दो हर्फ़ी कलमा] और वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा ] के Specific arrangment से मिल कर बनते है |

ये सालिम अर्कान कैसे बनते है--सबब और वतद क्या होते हैं, इसके लिए  इसी ब्लाग के पुराने अक़्सात देख सकते है। यहाँ दुहराना उचित नहीं।

मगर

अरूज़ में 8- हर्फ़ी सालिम अर्कान का भी ज़िक्र मिलता है। 

जनाब कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब की लोकप्रिय किताब " आहंग और अरूज़" में इन 8-हर्फ़ी सालिम 

अर्कान का ज़िक्र है ।आज हम इन्ही सालिम अर्कान पर चर्चा करेंगे। यह बात और है कि इन अर्कान का ज़िक्र अरूज़ की किसी और किताब में नही मिलता या न ही मेरी नज़र से गुज़रा । इन अर्कान में ज़दीद शायरॊ को शायरी  करते  भी नहीं देखा या किसी ने किया भी होगा तो बहुत कम । अत: ये 8-हर्फ़ी अर्कान प्रचलन में न आ सके।मगर अरूज़ के उसूलों के मुताबिक़ ये अर्कान Technically वज़ूद में आ सकते हैं ।

ऎसे 6-सालिम अर्कान बन सकते है । और ये अर्कान भी एक सबब [2-हर्फ़ी कलमा } और दो वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा] के specific arrangement से ही बनते हैं। 

[1] मफ़ाइलातुन [1 2 1 2 2 ] = 8-हर्फ़=वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+ वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] + सबब-ए-  ख़फ़ीफ़ [2] = बह्र-ए-जमील [ यह नाम सिद्दीक़ी साह्ब का दिया हुआ है]

[2] मुफ़ त ऊ  ल तुन [ 2 1 2 1 2 ]= 8-हर्फ़= सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2] + वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+ वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] = बह्र-ए- ख़लील [ - Do-]

[3] मफ़ाईलतुन [ 1 2 2 1 2 ] = 8 हर्फ़ = वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2] + वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] = बह्र-ए-शमीम [   -Do ]

------

[4] म फ़ा ई ला तु [ 1 2 2 2 1 ]  = 8- हर्फ़ =वतद-ए-मज्मुअ’[1 2]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] +वतद-ए-मफ़रुक़ [ 2 1] = इससे कोई सालिम बह्र नहीं बनती -कारण आप लोग जानते होंगे

[5] मुस तफ़अ’ ल तुन [ 2 2 1 1 2 ]  = 8- हर्फ़ = सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]+ वतद -ए-मफ़रूक़ [2 1] +वतद-ए-मज्मूअ’[1 2]= बह्र-ए-कसीर [ यह नाम सिद्दीक़ी साह्ब का दिया हुआ है]

[6] मुफ़ त इला तुन [ 2 1 1 2 2 ] = 8-हर्फ़   = वतद-ए-मफ़रूक़[2 1 2]+वतद-ए-मज्मुअ’[3]   + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] = बह्र-ए-निहाल  [ -Do- ] 


[ नोट - 7-हर्फ़ी अर्कान और 8-हर्फ़ी अर्कान में बेसिक फ़र्क यह है कि

[क] 7- हर्फ़ी अर्कान मे -बस एक ही वतद +दो सबब होता है और इसी दोनो सबब को वतद के आगे -पीछे घुमाते रहते है और नए-नए अर्कान बरामद होते रहते है। जबकि 

[ख]       8-हर्फ़ी अर्कान मे दो वतद + एक सबब -ए-ख़फ़ीफ़ होता है और वतद को इसी सबब के आगे-पीछे घुमाते रहते है और नए नए अर्कान बरामद होते है

एक दिलचस्प बात -- सबब का एक अर्थ ’रस्सी" भी होता है और वतद का अर्थ "खूँटा" भी होता है । रस्सी -खूटॆ से भी अर्कान की बुनावट समझी जा सकती है।

न्होने [1]-[2]-[3]  अर्कान ग्रुप को जनाब ख़्वाजा नसीरुद्दीन तौसी के नाम से मन्सूब कर - इस दायरे को  "दायरा-ए-तौसिया" का नाम दिया 

और [4]-[5]-[6 ]  अर्कान ग्रुप को जनाब शेख मुहम्मद इब्राहिम ’ज़ौक,’ के नाम से मन्सूब कर इस दायरे को "दायरा-ए-इब्राहिम" का नाम दिया

जैसे अन्य सालिम अर्कान पर ज़िहाफ़ात का अमल होता है वैसे इन सालिम अर्कान पर भी ’ज़िहाफ़ात" का अमल होगा। यह एक अलग विषय है। सिद्द्क़ी साहब ने अपनी उक्त किताब में इन सालिम अर्कान पर ज़िहाफ़ का अमल कर के दिखाया भी है और खुद साख़्ता अश;आर बना कर इन अर्कान का प्रयोग कर के और तक़्तीअ’ कर के भी दिखाया है।

सवाल यह उठता है कि जब यह अर्कान अरूज के नियमानुसार वज़ूद में आ सकता है तो इस पर शायरी क्यॊं नहीं की जा सकती?

 जी ज़रूर की जा सकती है अगर आप कर सकते हों तो। मनाही तो नहीं है।

मगर यह बह्र[ अर्कान] प्रचलन में नहीं है । न जाने क्यॊं शायरों ने इन बहूर में शायरी क्यो नहीं की?

एक कारण यह भी हो सकता है कि इन अर्कान में दो दो मुतह्र्रिक [ यानी 1 1 ] हर रुक्न में आ रहे हैं और  हर बार कुछ लफ़्ज़ का वज़न गिरा गिरा कर -1- के वज़न पर पढ़ना पड़ेगा  शे’र या ग़ज़ल में बार बार वज़न गिराना चूँकि अच्छा नहीं मानते है । हो सकता है शायद शोंअरा इन्ही कारणो से इन  अर्कान से गुरेज करते हों।

7- हर्फ़ी रुक्न में भी बह्र-ए-कामिल और बह्र-ए- वाफ़िर के अर्कान में भी दो 1- 1 आते है --। बह्र-ए-वाफ़िर में तो ख़ैर कोई शायरी नही करता , ग़ालिब ने तो बहर-ए-कामिल में भी कोई ग़ज़ल नहीं कही है । हाँ ,बह्र-ए-कामिल में कई लोग शायरी करते है मगर वहाँ भी कई  शब्दों का वज़न -2- पर होते हुए भी -1- पर गिराना पड़ता है --और मुश्किल पेश आती है।

ख़ैर

बह्र का वज़ूद में होना और बात है प्रचलन में होना और बात है । बहुत से बह्र ऐसे भी है [ जैसे--मदीद--बसीत--क़रीब-सरीअ’--जदीद--आदि] जो अस्तित्व में तो हैं मगर  लोग कम या नहीं के बराबर ही इन बहरों  में शायरी करते है।

ख़ैर
बह्रें तो सैकड़ॊ [ सालिम--मिरक़्कब--मुज़ाहिफ़--मुज़ाअ;फ़ आदि मिला कर ] हो सकती हैं मगर हर शायर हर बह्र में शायरी करत भी नही । हर शायर अपनी ख़ास पसन्दीदा बहर में ही शायरी करता है जैसे ग़ालिब ने लगभग 20 बह्रों में शायरी की तो मीर ने लगभग 30 बह्रों में  अपने कलाम पेश किए हैं।

अरूज़ियों ने इन 8-हर्फ़ी अर्कान और बह्रों को कोई ख़ास मान्यता नही दी । उनका कहना है कि ये अर्कान -तो 7- हर्फ़ी अर्कान पर ज़िहाफ़ लगाने से भी हासिल हो जाते है 

जैसे मफ़ाइलातुन [ 1 2 1 2 2 ] [ऊपर देखें]   -- यही अर्कान बह्र-ए-मुक्तज़िब में ज़िहाफ़ के अमल से भी बरामद होते है जैसे

121--22  /121--22/ 121--22 /121--22

अब 

मुस तफ़अ’ ल तुन [ऊपर देखें [ 2 2 1 1 2 ]   को ही लें 

यही अर्कान बह्र-ए-मुतदारिक [212] पर खब्न का ज़िहाफ़ + तस्कीन-ए-औसत  के अमल से भी बरामद हो सकता है जैसे--

22--112  / 22--112/ 22--112 /

नज़ीर अकबराबादी की मशहूर  नज़म " टुक हर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ----जब लाद चलेगा बंजारा " इसी मुज़ाहिफ़ बह्र में है।

 अन्य  लोगों ने भी इस बह्र में शायरी भी की है। जब Existing बह्र से ही काम चल जाता है तो 8-हर्फ़ी अर्कान वाले  बह्र के लिए इतनी माथा पच्ची क्यों?

लेख लम्बा और दुरुह न हो जाए अत: आज इतना ही काफी है। आइन्दा और ’टापिक’ पर चर्चा करेंगे।

सादर

[Disclaimer Clause  यह लेख कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब की अरूज़ की किताब- आहंग और अरूज़- पर आधारित है। असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि इस चर्चा में कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिहि ज़रूर फ़रमाएँ कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ।

सादर

-आनन्द.पाठक-



Thursday, May 4, 2023

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 83 : - उर्दू शायरी में मात्रा पतन के बारे में कुछ बातें-

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- उर्दू शायरी में मात्रा पतन के बारे में कुछ बातें-


किसी मंच पर एक बहस चल रही थी कि -नाबीना-- का वज़न क्या - 221 -लिया जा सकता है? सद्स्यॊं ने अपने अपने विचार प्रगट किए मैने भी किया।

जिसमें मैने कहा था कि -- नाबीना--शब्द के आख़िर मे हर्फ - नून और अलिफ है और अलिफ नून की आवाज को खींच कर -ना(2)-

 की पूरी आवाज दे रहा है खुल कर आवाज दे रहा है। अत: -नाबीना- को 222 के वज़न पर लेना उचित होगा।

एक सदस्य/सदस्या का कहना था कि तब -दीवाना--परवाना --जैसे शब्द का वज़न भी 222 लेना चाहिए ।

जिस पर मैने कहा ---नहीं। ऐसा  नहीं है।

यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।

जिन्हे उर्दू शायरी या ग़ज़ल ,शे’र-ओ-सुखन का शौक़ है उन्हें थोड़ा बहुत उर्दू अल्फ़ाज़ और क़वायद से भी परिचित होना चाहिए।

थोड़ी बहुत जानकारी हो तो बेहतर और नही भी हो तो कोई ख़ास बात नही

ख़ैर

1- पहली बात तो यह कि हिंदी में मात्रा पतन का कोई अवधारणा नहीं है ।हिंदी में जैस बोलते हैं वैसा लिखते हैं वैसा पढ़ते हैं

मगर उर्दू में ऐसा नहीं है । उर्दू में कुछ शब्द का इमला [ मक़्तूब] कुछ होता है तलफ़्फ़ुज़ [ मल्फ़ूज़] कुछ होता है ।

2- उर्दू शायरी -तलफ़्फ़ुज़- के आधार पर चलती है। मात्रा-पतन नाम की कोई चीज़ यहाँ भी नही है --बस सारा खेल शब्द के-तलफ़्फ़ुज़-

का है कि बह्र और वज़न की माँग पर किस हर्फ़ को दबा कर पढ़ना है /गिरा कर पढ़ना है --जिसे हम मात्रा-पतन कहते हैं या समझते हैं

3- हमारी राय में --किसी शे’र में मात्रा कम से कम गिरानी पड़े तो अच्छा और न गिरानी पड़े तो बहुत अच्छा। , शे’र की रवानी बनी रहती है।

4- वज़न गिराने का मसला हमेशा शब्द के आख़िरी हर्फ़ पर ही आता है --बीच के हर्फ़ पर नहीं।

मतलब आख़िरी हर्फ़ कों खींच कर पढ़ना है -यानी -2- पर पढ़ना या दबा कर पढ़ना है यानी -1- पर पढना है।


अब मूल प्रश्न पर आते हैं--क्यों दीवाना--परवाना--आइना--क़रीना--ज़माना जैसे शब्द का -ना--कभी -1- के वज़न पर लेते हैं कभी -2- के वज़न पर लेते हैं ?

जो उर्दू स्क्रिप्ट [ रस्म उल ख़त] से वाक़िफ़ है वो जानते है कि इन तमाम शब्दो के अन्त में हा-ए-हूज़ अपनी मुख़्तफ़ी शकल में शामिल है।

[ घबराइए नहीं मैं हा-ए-हूज़ और उसकी मुख़्तफ़ी शकल के बारे में स्पष्ट कर दे रहा हूँ]

हिंदी में -ह- के लिए एक ही वर्ण और एक ही आवाज़ है मगर उर्दू में -ह- के लिए दो हर्फ़ है

[1] बड़ी हे -- [ जिसे हाए हुत्ती  भी कहते है जैसे--तरह- सरह में लिखे जाते हैं या आते है

[2] छोटी हे-  [ जिसे हाए हूज़ भी कहते है।]  जैसे निगाह--राह--तबाह--जैसे हज़ारो शब्दों के अन्त में आते है

सारा खेल इसी छोटी -हे- [ हाए हुव्वज़ ] का है

यदि यह -हे- शब्द के आख़िर में independently आए जिसे हाए-असली भी कहते है तो यह -हे- अपनी पूरी आवाज़ देगा जैसे ऊपर -राह--निगाह--तबाह में आता है और इसका वज़न -1-

लिया जायेगा।

मगर यही -हे-जब अपने पहले वाले हर्फ़ के साथ वस्ल हो जाता है [तब इसे हाए वस्ली भी कहते हैं और अपने से पहले वाले हर्फ़ के साथ "मुख्तफ़ी"[ यानी इस -हे- की आवाज़ ख़फ़ीफ़ [छोटी] हो जाती है 

आप इसे यूँ समझिए कि इस प्रकार के- हे-की आवाज़ अपने पहले वाले हर्फ़ के साथ ’खप’ जाती है 

जैसे --दीवान: -परवान:--आइन:--करीन:-- जमान: तब -न- का वज़न -1- का देगा

मगर

इसी छोटी हे- कॊ अगर खींच कर पढ़ेंगे तो यही -हे- आवाज़ --आ-- [ अलिफ़ मद] की तरह सुनाई देगा  यानी -2- का वज़न सुनाई देगा

तब यह दीवान: -परवान:--आइन:--करीन:-- जमान:  आप को  -दीवाना--परवाना--आइना--क़रीना--ज़माना का -न- 2 के वज़न पर सुनाई देगा

इसी लिए ऐसे शब्द बह्र की माँग के अनुसार ऐसे शब्दों के -ना- कभी -1- कभी-2- के वज़न पर लेते हैं


दरअस्ल -शब्द -जगह- में यही हाए-हूज़ मुख़्तफ़ी  यानी -ग- के साथ ’खप’ गया है जो खींच कर पढ़ने से-जगा- हो गया जो अलिफ़ क़ाफ़िए के मुक़ाबिल लाया गया था

जो अज़-रु-ए-अरूज़ दुरुस्त है।

अच्छा एक बात और0---

जब ऐसी -हे- खींच कर पढ़ने से जब -आ- की आवाज़ आ रही है तो क्या --इस -हे-को इमला मे -अलिफ़-से बदल लेना चाहिए?

अरूज़ियों का कहना है कि नहीं--ज़रूरत नही -इमला -इसी -हे-[ हाए हूज़] से चलेगा। पढ़ने वाला और समझने वाला समझ लेगा।

यही बात --वादा-- परदा--नाकर्दा-- जैसे शब्दों के साथ भी है

एक और -हे- भी है-----हा हा हा हा --जिसे- ’दो चश्मी--हे कहते हैं । उसकी बात कभी बाद में।


नोट = अगर इस आलेख में कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि निशानदिही फ़रमा दे कि मैं आइनदा दुरुस्त कर सकूँ

सादर

-आनन्द.पाठक-