8-हर्फ़ी अर्कान : एक बातचीत
हम अरूज़ और बह्र में 5-हर्फ़ी सालिम अर्कान और 7- हर्फ़ी सालिम अर्कान देख चुके हैं। यानी
5-हर्फ़ी सालिम अर्कान :- फ़ऊलुन [122} और फ़ाइलुन [ 212 ]
7- हर्फ़ी सालिम अर्कान : मफ़ाईलुन [1222]---- फ़ाइलातुन [ 2122]---मुसतफ़इलुन [2212]---मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2] ---मुफ़ाइलतुन [ 1 2 1 1 2 ] ---मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1 ]
यानी 5-हर्फ़ी सालिम अर्कान की संख्या = 2
और 7- हर्फ़ी सालिम अर्कान की संख्या = 6
कुल मिला कर 8 सालिम अर्कान है मगर सालिम बह्र सात ही बनती है---कारण आप जानते होंगे।
आप यह भी जानते होंगे कि यह सारे सालिम अर्कान -सबब -[ दो हर्फ़ी कलमा] और वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा ] के Specific arrangment से मिल कर बनते है |
ये सालिम अर्कान कैसे बनते है--सबब और वतद क्या होते हैं, इसके लिए इसी ब्लाग के पुराने अक़्सात देख सकते है। यहाँ दुहराना उचित नहीं।
मगर
अरूज़ में 8- हर्फ़ी सालिम अर्कान का भी ज़िक्र मिलता है।
जनाब कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब की लोकप्रिय किताब " आहंग और अरूज़" में इन 8-हर्फ़ी सालिम
अर्कान का ज़िक्र है ।आज हम इन्ही सालिम अर्कान पर चर्चा करेंगे। यह बात और है कि इन अर्कान का ज़िक्र अरूज़ की किसी और किताब में नही मिलता या न ही मेरी नज़र से गुज़रा । इन अर्कान में ज़दीद शायरॊ को शायरी करते भी नहीं देखा या किसी ने किया भी होगा तो बहुत कम । अत: ये 8-हर्फ़ी अर्कान प्रचलन में न आ सके।मगर अरूज़ के उसूलों के मुताबिक़ ये अर्कान Technically वज़ूद में आ सकते हैं ।
ऎसे 6-सालिम अर्कान बन सकते है । और ये अर्कान भी एक सबब [2-हर्फ़ी कलमा } और दो वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा] के specific arrangement से ही बनते हैं।
[1] मफ़ाइलातुन [1 2 1 2 2 ] = 8-हर्फ़=वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+ वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] + सबब-ए- ख़फ़ीफ़ [2] = बह्र-ए-जमील [ यह नाम सिद्दीक़ी साह्ब का दिया हुआ है]
[2] मुफ़ त ऊ ल तुन [ 2 1 2 1 2 ]= 8-हर्फ़= सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2] + वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+ वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] = बह्र-ए- ख़लील [ - Do-]
[3] मफ़ाईलतुन [ 1 2 2 1 2 ] = 8 हर्फ़ = वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2] + वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] = बह्र-ए-शमीम [ -Do ]
------
[4] म फ़ा ई ला तु [ 1 2 2 2 1 ] = 8- हर्फ़ =वतद-ए-मज्मुअ’[1 2]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] +वतद-ए-मफ़रुक़ [ 2 1] = इससे कोई सालिम बह्र नहीं बनती -कारण आप लोग जानते होंगे
[5] मुस तफ़अ’ ल तुन [ 2 2 1 1 2 ] = 8- हर्फ़ = सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]+ वतद -ए-मफ़रूक़ [2 1] +वतद-ए-मज्मूअ’[1 2]= बह्र-ए-कसीर [ यह नाम सिद्दीक़ी साह्ब का दिया हुआ है]
[6] मुफ़ त इला तुन [ 2 1 1 2 2 ] = 8-हर्फ़ = वतद-ए-मफ़रूक़[2 1 2]+वतद-ए-मज्मुअ’[3] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] = बह्र-ए-निहाल [ -Do- ]
[ नोट - 7-हर्फ़ी अर्कान और 8-हर्फ़ी अर्कान में बेसिक फ़र्क यह है कि
[क] 7- हर्फ़ी अर्कान मे -बस एक ही वतद +दो सबब होता है और इसी दोनो सबब को वतद के आगे -पीछे घुमाते रहते है और नए-नए अर्कान बरामद होते रहते है। जबकि
[ख] 8-हर्फ़ी अर्कान मे दो वतद + एक सबब -ए-ख़फ़ीफ़ होता है और वतद को इसी सबब के आगे-पीछे घुमाते रहते है और नए नए अर्कान बरामद होते है
एक दिलचस्प बात -- सबब का एक अर्थ ’रस्सी" भी होता है और वतद का अर्थ "खूँटा" भी होता है । रस्सी -खूटॆ से भी अर्कान की बुनावट समझी जा सकती है।
उन्होने [1]-[2]-[3] अर्कान ग्रुप को जनाब ख़्वाजा नसीरुद्दीन तौसी के नाम से मन्सूब कर - इस दायरे को "दायरा-ए-तौसिया" का नाम दिया
और [4]-[5]-[6 ] अर्कान ग्रुप को जनाब शेख मुहम्मद इब्राहिम ’ज़ौक,’ के नाम से मन्सूब कर इस दायरे को "दायरा-ए-इब्राहिम" का नाम दिया
जैसे अन्य सालिम अर्कान पर ज़िहाफ़ात का अमल होता है वैसे इन सालिम अर्कान पर भी ’ज़िहाफ़ात" का अमल होगा। यह एक अलग विषय है। सिद्द्क़ी साहब ने अपनी उक्त किताब में इन सालिम अर्कान पर ज़िहाफ़ का अमल कर के दिखाया भी है और खुद साख़्ता अश;आर बना कर इन अर्कान का प्रयोग कर के और तक़्तीअ’ कर के भी दिखाया है।
सवाल यह उठता है कि जब यह अर्कान अरूज के नियमानुसार वज़ूद में आ सकता है तो इस पर शायरी क्यॊं नहीं की जा सकती?
जी ज़रूर की जा सकती है अगर आप कर सकते हों तो। मनाही तो नहीं है।
मगर यह बह्र[ अर्कान] प्रचलन में नहीं है । न जाने क्यॊं शायरों ने इन बहूर में शायरी क्यो नहीं की?
एक कारण यह भी हो सकता है कि इन अर्कान में दो दो मुतह्र्रिक [ यानी 1 1 ] हर रुक्न में आ रहे हैं और हर बार कुछ लफ़्ज़ का वज़न गिरा गिरा कर -1- के वज़न पर पढ़ना पड़ेगा शे’र या ग़ज़ल में बार बार वज़न गिराना चूँकि अच्छा नहीं मानते है । हो सकता है शायद शोंअरा इन्ही कारणो से इन अर्कान से गुरेज करते हों।
7- हर्फ़ी रुक्न में भी बह्र-ए-कामिल और बह्र-ए- वाफ़िर के अर्कान में भी दो 1- 1 आते है --। बह्र-ए-वाफ़िर में तो ख़ैर कोई शायरी नही करता , ग़ालिब ने तो बहर-ए-कामिल में भी कोई ग़ज़ल नहीं कही है । हाँ ,बह्र-ए-कामिल में कई लोग शायरी करते है मगर वहाँ भी कई शब्दों का वज़न -2- पर होते हुए भी -1- पर गिराना पड़ता है --और मुश्किल पेश आती है।
ख़ैर
बह्र का वज़ूद में होना और बात है प्रचलन में होना और बात है । बहुत से बह्र ऐसे भी है [ जैसे--मदीद--बसीत--क़रीब-सरीअ’--जदीद--आदि] जो अस्तित्व में तो हैं मगर लोग कम या नहीं के बराबर ही इन बहरों में शायरी करते है।
ख़ैर
बह्रें तो सैकड़ॊ [ सालिम--मिरक़्कब--मुज़ाहिफ़--मुज़ाअ;फ़ आदि मिला कर ] हो सकती हैं मगर हर शायर हर बह्र में शायरी करत भी नही । हर शायर अपनी ख़ास पसन्दीदा बहर में ही शायरी करता है जैसे ग़ालिब ने लगभग 20 बह्रों में शायरी की तो मीर ने लगभग 30 बह्रों में अपने कलाम पेश किए हैं।
अरूज़ियों ने इन 8-हर्फ़ी अर्कान और बह्रों को कोई ख़ास मान्यता नही दी । उनका कहना है कि ये अर्कान -तो 7- हर्फ़ी अर्कान पर ज़िहाफ़ लगाने से भी हासिल हो जाते है
जैसे मफ़ाइलातुन [ 1 2 1 2 2 ] [ऊपर देखें] -- यही अर्कान बह्र-ए-मुक्तज़िब में ज़िहाफ़ के अमल से भी बरामद होते है जैसे
121--22 /121--22/ 121--22 /121--22
अब
मुस तफ़अ’ ल तुन [ऊपर देखें [ 2 2 1 1 2 ] को ही लें
यही अर्कान बह्र-ए-मुतदारिक [212] पर खब्न का ज़िहाफ़ + तस्कीन-ए-औसत के अमल से भी बरामद हो सकता है जैसे--
22--112 / 22--112/ 22--112 /
नज़ीर अकबराबादी की मशहूर नज़म " टुक हर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ----जब लाद चलेगा बंजारा " इसी मुज़ाहिफ़ बह्र में है।
अन्य लोगों ने भी इस बह्र में शायरी भी की है। जब Existing बह्र से ही काम चल जाता है तो 8-हर्फ़ी अर्कान वाले बह्र के लिए इतनी माथा पच्ची क्यों?
लेख लम्बा और दुरुह न हो जाए अत: आज इतना ही काफी है। आइन्दा और ’टापिक’ पर चर्चा करेंगे।
सादर
[Disclaimer Clause यह लेख कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब की अरूज़ की किताब- आहंग और अरूज़- पर आधारित है। असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि इस चर्चा में कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिहि ज़रूर फ़रमाएँ कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ।
सादर
-आनन्द.पाठक-
मुझे वैसे भी अरूज़ की बहुत कम मा'लूमात है लेकिन यह जानकारी बिल्कुल नयी है मेरे लिए । बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय, लिखते रहिए ताकि हम जैसे लोग लाभान्वित होते रहें ।
ReplyDeleteजी ज़रूर , यह आप की नवाज़िश है
Deleteआजकल अरूज़ के बारे में पढ़ता ही कौन है--सब ग़ज़ल के नाम पर
"तुकबन्दी" में लगे हुए हैं
किसी का शे’र है--
अदब के नाम पर महफ़िल में चर्बी बेचने वालों
अभी कुछ लोग ज़िंदा हैं जो घी पहचान लेते हैं
सादर
बहुत उपयोगी जानकारी है सर जी।
ReplyDeleteजी शुक्रिया
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया सर..ये जानकारी होनी जरूरी है और वो आपसे ही मिल पा रही ।आपका मार्ग दर्शन हमारे लिए अनमोल है। प्रणाम
ReplyDeleteमीनाक्षी जी---आप का बहुत बहुत धन्यवाद
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