Saturday, March 22, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त 118: वक़्त फ़िल्म के एक गाने की बह्र

  उर्दू बह्र पर एक बातचीत  01: 

किसी मंच पर मेरे एक मित्र ने सवाल किया था कि एक फ़िल्म ’वक्त’[1965] बलराज साहनी और अचला सचदेव द्वारा अभिनीत फ़िल्म में साहिर लुध्यानवी साहब का एक गीत है[आप ग़ज़ल भी कह सकते हैं]

[यू-ट्यूब पर मिल जाएगा]


वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज

वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज


वक़्त की गर्दिश से है, चाँद तारों का निज़ाम

वक़्त के ठोकर में है, क्या हुकूमत क्य समाज


वक़्त की पाबंद है, आती जाती रौनकें

वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है काँटों का ताज


आदमी को चाहिए, वक़्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी , वक़्त का बदले मिज़ाज 

 इस ग़ज़ल का वज़न और इसकी बह्र क्या है ?

---    ---

उत्तर :

 [ नोट ; यह लेख उन पाठको के लिए जो अरूज़ से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते है मज़ीद मालूमात

हासिल करना चाहते है] 

वैसे यह बह्र उर्दू शायरी में बहुत प्रचलित तो नहीं है। बहर कैफ़ यह एक मान्य बह्र है तो है।

इससे पहले कि बात आसानी से समझ में आ जाए-पहले दो शे’र की तक्तीअ’ कर के देख लेते हैं।


शे’र 1 [ मतला ]

2 1 2  2  / 2 1 2 1/ 2 1 2 2  / 2 1 2 1             =   -A------ B---     C--------D

वक़्त से दिन /और रात,/ वक़्त से कल/ और आज  =  2122--2121/ 2122--2121


2 1  2  2/  2 1 2 1/ 2 1 2  2 / 2 1 2 1

वक़्त की हर/ शै गुलाम,/ वक़्त का हर/ शै पे राज = 2122--2121 / 2122-2121

--  --  --  

शे’र 2 

2 1  2  2 /  2 1 2  / 2 1 2 2/ 2 1 2 1             = A'---  - B'      --   C'------  D'

वक़्त की गर्/ दिश से है,/ चाँद तारों /का निज़ाम  = 2122--212  / 2122--2121


2 1  2  2 / 2 1 2  / 2 1 2 2 / 2 1 2 1

वक़्त की ठो /कर में है,/ क्या हुकूमत /क्य समाज = 2122--212 / 2122-2121


बाक़ी दो बचे हुए शे’रों की तक़्तीअ’ आप कर लें और निश्चिन्त हो लें।

---

कुछ मित्रों ने बह्र [ कुछ हद तक ] सही पहचाना। जॊ हां यह बह्र-ए-मदीद है।

बह्र-ए-मदीद एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित बह्र] है और इसका बुनियादी रुक्न 

2122--212 [ फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन ] है। और इसकी मुसम्मन सालिम शकल 

2122--212---2122--212 ही होगी ।

 अगर हम मतला में -B-[हस्व का मुक़ाम ]  देखें तो वहाँ -212- के बजाए -2121 आ रहा है यानी एक हर्फ़-ए-साकिन [1] ज़ियादा जो मदीद मुसम्मन के अर्कान में तो नहीं आ रहा है। बज़ाहिर यह ग़ज़ल मदीद मुसम्मन सालिम तो नहीं होगी । हाँ अगर मुक़ाम -D- [ अरूज़/ज़र्ब का मुक़ाम ] पर 2121 आता तो कुछ सोचा जा सकता था।

ऐसा क्यों?

ऐसा इसलिए कि  212 [ फ़ाइलुन पर अगर इज़ाला का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो -2121- बरामद होता है । और यह ज़िहाफ़ ’इज़ाला’ -एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ही आता है --हस्व या अन्य मुक़ाम पर नही। यानी

212+ इज़ाला = मज़ाल 2121 [ फ़ाइलान]

तब  मदीद मुसम्मन मज़ाल की शक्ल होती --2122---212---2122---212[1] मगर ऊपर के मतला में यह सूरत तो नहीं है अत: यह बह्र न मदीद मुसम्मन सालिम है न ही

मदीद मुसम्मन मज़ाल ही है।

तो फ़िर ? इसे कुछ ऐसे कर के देखते है मुरब्ब: की शकल कर देते हैं=

शे’र 1 [ मतला ]

2 1 2  2  / 2 1 2 1// 2 1 2 2  / 2 1 2 1 =   -A------ B--//   A------ B-- 

वक़्त से दिन /और रात,// वक़्त से कल/ और आज  =  2122--2121/ 2122--2121


2 1  2  2/  2 1 2 1// 2 1 2  2 / 2 1 2 1

वक़्त की हर/ शै गुलाम,/ वक़्त का हर/ शै पे राज = 2122--2121 // 2122-2122

अब यह मुरब्ब: मुज़ाइफ़ [ यानी मुरब्ब: की दो गुनी की हुई  ] की शकल हो गई [ यानी एक मिसरा में 4-अर्कान । शे’र में 8 अर्कान

चूंकि मुरब्ब: शे’र में हस्व का मक़ाम नही होता बस--सीधे सदर/इब्तिदा----अरूज़/ज़र्ब होता है तो इज़ाला ज़िहाफ़ [2121] - दोनॊ -B- पर लग सकता है

कारण की दोनो ही अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम है तो अब शेर’ मतला की स्थिति यूँ होगी

2122---2121// 2122--2121 

और नाम होगा --बह्र-ए-मदीद सालिम मज़ाल मुरब्ब: मुज़ाइफ़ 

अब मिसरा के बीच में -1 [साकिन हर्फ़]-मात्रा ज़ियादा लाया जा सकता है। ध्यान रहे यह -1-वज़न किसी छूट के कारण नही [ जैसा कि कुछ मित्र समझते है

बल्कि ज़िहाफ़ के कारण आया है।

नोट - आप मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ से कन्फ़ूज न होइए--मुज़ाहिफ़ [ ज़िफ़ाह शुदा अरकान ]  और -मुज़ाइफ़ बोले तो [ दो गुना किए हुए अर्कान ]

चूँकि ग़ज़ल की बह्र का निर्धारण -मतला से ही निर्धारित होता है और साहिर साहब ने दोनो मिसरों में यह वज़न बरता है सो इस बह्र का नाम

बह्र-ए-मदीद सालिम मज़ाल मुरब्ब: मुज़ाइफ़ होगा , न कि मदीद मुसम्मन सालिम।

 ख़ैर

अब आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा या उठना चाहिए  कि  फ़िर ये

A'---  - B'   // --   C'------  D' क्या है? 

मुरब्ब: के संदर्भ में अब आप इसे यूँ कर लें--

A’------ B ’--//   A’------ B’-- 

यह अन्य शे’र का मिसरा ऊला का वज़न हो सकता है  और मिसरा उला में मज़ाल की जगह -सालिम रुक्न - लाया जा सकता है जो यहाँ लाया गया है।

अरूज़ एक बहुत ही आसान और दिलचस्प विषय है शर्त यह कि इसे मुहब्बत से पढ़ा जाए और शिद्दत से समझा जाए।

{नोट- : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।

सादर

-आनन्द.पाठक-







 


Wednesday, February 26, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 117: बह्र-ए-हज़ज की एक मुज़ाहिफ़ बह्र की चर्चा

 क़िस्त 117 : बह्र-ए- हज़ज की एक मुज़ाहिफ़ बह्र की चर्चा 


मेरे एक मित्र ने कुछ नामचीं शायरो के चन्द अश’आर  पेश किए और जानना चाहा कि इनकी बह्र क्या है ?

;1:

बुलाती है मगर जाने का नहीं

ये दुनिया है इधर जाने का नही


मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर

मगर हद से गुज़र जाने का नहीं

-राहत इन्दौरी-

[ नोट -- ये दुनिया है *उधर* जाने का नहीं --होता तो बेहतर होता। उर्दू के मूल  स्क्रिप्ट में 

-उधर- ही होगा जो हिंदी के लिप्यंतरण से यह दोष उत्पन्न हो गया। उर्दू मे इधर-उधर. इसका-उसका.

इन्हे-उन्हे दोनो का इमला एक सा है। फ़र्क सिर्फ़ ’अलिफ़’ के ऊपर हरकत [ ज़ेर-पेश] का होता है जिसे उर्दू

वाले सीरियसली नही लगाते और हम हिंदी वाले लिप्यंतरण में यह ग़लती कर बैठते है। ख़ैर

:2: 

थकान औरों पे हावी है मिरी

रिहाई अब ज़रूरी है मिरी 


बहुत संजीदगी दरकार है

हँसी भी छूट सकती है मिरी 

-नामालूम-

:3:

यहाँ यूँ ही नहीं पहुँचा हूँ मै

मुसल्सल रात दिन दौड़ा हूँ मैं

-फ़हमी बदायूनी

:4:

ख़ुदा को भूलना आसान है

हमारा मसअला इंसान है ।

-फ़हमी बदायूनी-

अगर इन तमाम अश’आर की तक़्तीअ’ करे तो वज़न उतरता है

1222--1222-12

और अर्कान है 

मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन-फ़े अ’ल

कुछ किताबों में इस बह्र का नाम दिया है--

1-बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम मजबूब । इस आधार पर कि आख़िरी रुक्न [ अरूज़/जर्ब के मुकाम पर] ’जब्ब’ का ज़िहाफ़ लगा है जो मुज़ाहिफ़ मजबूब हो गया


कुछ किताबों में इस बह्र का नाम दिया है

2- बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम अब्तर मक़्बूज़ । इस आधार पर कि आख़िरी रुक्न[ अरूज़/जर्ब के मुकाम पर] [ बतर+ कब्ज़] का ज़िहाफ़ लगा है। जो ’अबतर मक़्बूज़’ हो गया।

मैं व्यक्तिगत रूप  से इस दूसरे नाम से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ।

कारण? 

कारण यह कि -

मुफ़ाईलुन [1222] में ’मुआ’कबा’ की क़ैद है। 

मुआ’कबा -के बारे मे मैने अपने ब्लाग पर चर्चा की है जिसका लिंक है--

https://www.arooz.co.in/2024/12/112-3-riders-restrictions.html

संक्षेप में मुआ’कबा की क़ैद यह है कि --अगर किसी रुक्न में [ यहाँ 1222] मे दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ एक साथ आ जाए [यहां~ आखिरी 2 2 ] तो दोनो एक साथ साकित

नहीं हो सकते । जब कि ’जब्ब:’ आख़िरी 22 को साकित कर देता है  और 12 बचता है जो मुआ’कबा की खिलाफ़वर्जी होगी। इसलिए मैं उसका समर्थक नहीं।

जब कि [अबतर + कब्ज़ ] के अमल से भी 12 बरामद होता है और यह मुआकबा की खिलाफ़वर्जी भी नही करता।

एक बात और

राहत साहब का  रदीफ़-का नहीं - का वज़न 12 पर लिया है । कारण -का- तो ख़ैर -1- पर हो सकता है [ मात्रा पतन के कारण] मगर -नहीं-?

-नहीं -यहाँ -2- पर लिया गया है। कारण ? जहाँ तक मुझे याद है कि इस मिसरा को पढ़ते समय राहत साहब ने एक वज़ाहत फ़रमाई थी कि- नहीं- को फ़ारसी शब्द

-नै-या नइ- [ नहीं-शब्द का विकल्प] के वज़न -2- पर लिया है।

[ नोट : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।


-आनन्द.पाठक-

88009 27181







Tuesday, February 25, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त 116 :मुरब्ब: शे’र बनाम मुसम्मन शे’र --एक चर्चा

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त  116 : मुरब्ब: शे’र बनाम मुसम्मन शे’र -एक चर्चा

     जो शायरी करते है या ग़ज़ल कहते हैं वह ’ मुरब्ब:’ और ’मुसम्मन’ शब्द से ज़रूर वाक़िफ़ होंगे कि उनके अश’आर मुरब्ब: की सूरत  है या कि मुसम्मन की सूरत हैं।

मुरब्ब: शब्द अरबी के ’अर्ब’अ’ शब्द से बना है जिसके मा’नी होता है चार या चार की संख्या। इसी शब्द से ’रुबाई’ [ शायरी की एक विधा] शब्द भी बना है जिसके मा’नी होता है --चार लाइनों वाला सुखन। ख़ैर 

मुरब्ब: - शब्द का अर्थ होता है --4 या 4- की संख्या। यानी किसी शे’र में 4-रुक्न [ यानी मिसरा में 2-ही रुक्न ] का इस्तेमाल हुआ हो। A--D

मुसम्मन -शब्द का अर्थ होता है --8 या 8 की संख्या। यानी किसी शे’र में 8- रुक्न [ मिसरा मे 4 हीरुक्न ] का इस्तेमाल हुआ हो | A--B---C--D

मुज़ाइफ़ -- शब्द का अर्थ होता है --किसी चीज को दो-गुना किया हुआ ।[ ध्यान रहे यह शब्द :मुज़ाइफ़’: -[ इ-पर ध्यान दें] है -मुज़ाहिफ़ नहीं  [ मुज़ाहिफ़ माने होता है किसी रुक्न पर "ज़िहाफ़" लगा हुआ। -ह- पर ध्यान दें। 

मुरब्ब: मुज़ाइफ़ -- शब्द का अर्थ होगा --8-रुक्नी शे’र [ यानी मिसरा में 4- रुक्न ]। यही परिभाषा तो ’ मुसम्मन ’ का भी है

तो सवाल यह है :-

-- क्या मुरब्ब: मुजाइफ़ को हम मुसम्मन कह सकते हैं?

-- यह 8- रुक्नी शे’र देख कर हम कैसे पता करें कि कोई शे’र ’ मुसम्मन’ है या मुरब्ब: मुज़ाइफ़ है?

Any idea? any clue? any उपाय ?

  इस पर कुछ सदस्यों ने अपनी  राय ज़ाहिर की। मगए जवाब बहुत संतोष जनक नहीं था। ख़ैर

---सबसे आसान उपाय तो यह कि शायर महोदय खुद ही बता दें कि उन्होने किस बह्र में शायरी की है-मुसम्मन में या मुरब्ब: मुज़ाइफ़ में । so simple|

--एक मित्र ने ने हिंट दिया कि 

     A--B // a-b  को देख कर कि B मुकाम पर के लफ़्ज़ का कोई हर्फ़ b मुक़ाम पर spill over न हो तो मुरब्ब: मुज़ाहिफ़।

  मगर यह जवाब भी बहुत संतोषजनक नहीं है। शायर अपनी ग़ज़ल में --//-- की अलामत नहीं दिखाता कि पता लग सके। लिखने वाले तो ख़ैर बह्र और वज़न भी नही लिखते दिखाते। 

   और इस केस में --//-- [ मुरब्ब: मुज़ाइफ़ केस में ] यह बह्र शिकस्ता की अलामत  नहीं --यह तो लाज़मी अरूजी वक़्फ़ा [ ठहराव] की अलामत ] है

दूसरी बात मुसम्मन केस में कभी कभी  प्रयुक्त लफ़्ज़ B पर ही खत्म हो जाता है कोई हर्फ़ b मुक़ाम पर spill over नही होता । कन्फ़्यूजन फिर भी रहेगा।

तब ? कुछ नही। --तीसरा उपाय देखते हैं।

इससे पहले कुछ बुनियादी बातें कर लेते है। शे’र में अर्कान के मुकाम के हिसाब से उनके नाम

मुसम्मन = सदर/इब्तिदा --हस्व--हस्व--अरूज़/ज़र्ब     =यानॊ दो-हस्व= A--B--C--D

मुसद्दस = सदर/इब्तिदा --हस्व--अरूज़/ज़र्ब  = यानी एक-हस्व= A--B--D

मुरब्ब:  =सदर/इब्तिदा --अरूज़/ज़र्ब  = यानी नो हस्व = A--D यानी मुरब्ब: में हस्व का मुक़ाम नही होता। सीधे सदर--अरूज़ ही होता है।

अच्छा 

यह तो आप जानते होंगे कि कुछ  ख़ास ज़िहाफ़ात के अमल से आखिरी रुक्न [ यानी अरूज़/ज़र्ब के मुकाम पर] एक हर्फ़ [ साकिन ] बढ़ जाता है जैसे-

मफ़ाइलान [ 12121]--मफ़ऊलान [2221] --फ़अ’लान [221] --आदि

और आप यह भी जानते होंगे कि किसी मिसरा के आख़िर में एक हर्फ़ [साकिन] बढ़ाया जा सकता है और बढ़ाने से बह्र पर कोई असर नहीं पड़ता।

अच्छा--यह सुविधा --सिर्फ़ D मुक़ाम के लिए उपलब्ध है B-और C-- मुक़ाम के लिए नही

  यानी मुरब्ब: मुज़ाहिफ़ में  A--D  //A--D   पर उपलब्ध है -[ यानी दो जगह उपलब्ध होगी यानी शे’र के बीच में भी उपलब्ध होगी 

जब कि मुसम्मन में सिर्फ़ एक जगह  उपलब्ध होगी और वह भी आख़िरी रुक्न पर।

अत: जब आप को मुसम्मन शे’र की   तक़्तीअ करते समय बीच में [ मिडिल -D  के मुकाम पर] एक हर्फ़ [साकिन] ज़ियादे मिले तो समझिए कि वह मुरब्ब: मुज़ाइफ़ है। वरना तो

दोनो में अन्तर करना ज़रा मुशकिल होगा।

चलते चलते  --

निकाते-अरूज़ अपनी जगह

और शायरी अपनी  जगह ।

[ नोट : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।

सादर

-आनन्द .पाठक- 

8800927181


Thursday, February 6, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 115 : 11212+ 122 मुरक़्क़ब बह्र या सालिम मुज़ाहिफ़ बह्र ?

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 115 : 11212+122 की बह्र पर एक चर्चा 


किसी मंच पर मेरे एक मित्र ने 12 मुरक़्कब बह्रों का नाम लिखा था और अन्त में एक सवाल भी किया था।

सवाल यह था कि -

:[मुतफ़ाईलुन , फ़ऊलुन ]यानी [ 11212+ 122 ] बह्र में भी ग़ज़ल देखी है। ये भी सालिम मुरक़्कब है लेकिन इनका ज़िक्र किताबोंमें 12[ बारह] मुरक़्क़ब बह्र के साथ क्यों नहीं है ? कोई बताए।

[नोट : इन बारह[12] मुरकक़ब बह्रों के बारे में मैने भी अपने इसी ब्लाग पर क़िस्त 22 [ शायरी में प्रचलित बह्रें] में चर्चा की हैं । आप चाहें तो वहाँ देख सकते है।

ळिंक नीचे लगा दिया है--

https://www.arooz.co.in/2020/05/22.html

 इस के जवाब में एक मित्र ने किसी किताब का उद्धरण पेश किया -" मुरक़्कब बह्रों की मूल बह्र का उपयोग हिंदी भाषा की ग़ज़ल में न के बराबर होता है इनकी उप-बह्रें ही प्रचलित हैं।

मुझे यह उत्तर प्रथम मित्र के सवाल के संदर्भ में बहुत सही नहीं लगा।

एक बात।

किसी बह्र का चलन में होना न होना एक बात है और बह्र का होना न होना अलग बात है।

अगर कोई बह्र अरूज़ के क़ायदे के मुताबिक़ हो सकती है या बन सकती है तो बन सकती है। प्रचलन में होना न होना ,बह्र की कसौटॊ नहीं हो सकता। प्रचलन में तो 

बह्र-ए-वाफ़िर भी नहीं है या कम है अगर कोई बह्र-ए-वाफ़िर में शायरी करना चाहे तो कर सकता कोई मनाही नहीं। लोग क्यॊ नहीं करते --पता नहीं। 


दूसरी बात।

 किसी भी अरूज़ की किताब में [ तवालत के मद्द-ए-नज़र मुमकिनात [ संभावित] सालिम बह्र,  मुज़ाहिफ़ बह्र [ मुज़ाइफ़  बह्र सहित] की चर्चा यकजा नहीं हो सकती 

अरूज़ में कायदे कानून  की ही चर्चा होती है ।  बह्र बनाना अमल में लाना न लाना, शायरी करना न करना तो शायर  के ऊपर निर्भर करता है। ख़ैर।

मित्र के सवाल के जवाब में, एक जवाब अपनी समझ के अनुसार पेश करने की कोशिश करता हूँ। 

11212-122 यूँ तो देखने में दो सालिम रुक्न से बनी हुई कोई मुरक़्कब बह्र लगती है मगर यह हैं नहीं। यह बह्र-ए-कामिल की एक मुज़ाहिफ़ बह्र है।

शायद इसीलिए इसे उन 12[ बारह] मुरक़्कब बह्रों के साथ नहीं लिया गया होगा।

 11212--122 मुज़ाहिफ़ बह्र कैसे ?

मुतफ़ाइलुन [11212] पर  ज़िहाफ़ "वक्स" और ’क़त’अ लगा कर देखते है

11212+ वक़्स + क़त’अ = मुज़ाहिफ़ मौक़ूस मक़्तूअ’ 122 [ फ़ऊलुन ]

यानी 

11212 - 122  =  बह्र-ए-कामिल मौक़ूस मक्तूअ’ हुआ जो कि एक मुज़ाहिफ़ [ ज़िहाफ़ शुदा बह्र] बह्र  है न कि मुरक़्कब बह्र।

नोट : मंच के असातिज़ा  से अनुरोध है कि अगर कहीं कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़र्माएँ कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं~।

्सादर


-आनन्द पाठक


Friday, January 17, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : किस्त 114: शायद आप जानते होंगे

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : किस्त 114: शायद आप जानते होंगे---


हिंदी ग़ज़ल में जिसे आप ’मापनी’ कहते हैं, उसे अरबी [उर्दू] में फ़े’ल [ फ़े-ए’न- लाम][ف—-‏‏ع--ل जिसके पर्यायवाची अफ़ाइल--तफ़ाइल--रुक्न[अर्कान] --वज़्न [औजान]-मीज़ान-आदि भी कहते हैं
वैसे तो "फ़ेअ’ल" का लगवी मा’ने तो क्रिया [Verb] होता है मगर अरूज़ के लिहाज़ से इसका कोई अर्थ नहीं होता |इसे बस मात्रा भार वज़न दर्शाने दिखाने के लिए प्रयोग करते हैं।
जितने भी सालिम फ़े’ल [ मापनी] है जैसे
फ़ऊलुन[122]-फ़ाइलुन [212]-मफ़ाईलुन[1222] --फ़ाइलातुन [ 2122]-मुसतफ़इलुन [2212] मफ़ऊलातु [2221]-मुतफ़ाइलुन [11212]-मुफ़ाइलतुन [12112]
अगर आप इनकी वर्तनी [spelling. हिज्जे] ग़ौर से देखेंगे तो सबमें [फ़े-ए’न-लाम ] ف—-‏‏ع--ل में से कम से "दो हर्फ़" ज़रूर मिलेंगे।

कभी कभी सालिम फ़े’ल पर ज़िहाफ़ लगाने से इसकी शक्ल [वज़न] बदल जाती है। इस बदली शकल [ मुज़ाहिफ़ शकल] को किसी ऐसे मानूस [जानी पहचानी] फ़े’ल से बदल लेते है जिसमें फिर [ फ़े-एन-लाम [ف—-‏‏ع--ل में से कम से कम दो हर्फ़ ज़रूर होता है।
जैसे-फ़ालुन [22]---मफ़ऊलुन [222]---मफ़ऊलु[221]--फ़ाइलातु [2121] वग़ैरह
सादर
-आनन्द.पाठक-

Thursday, January 16, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त 113 : बह्र 12122--12122---12122---12122 पर एक चर्चा ।

 

उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त 113 : बह्र 12122--12122---12122---12122  पर एक चर्चा ।

[ नोट- यह लेख उनके लिए है जो अरूज़ से दिलचस्पी रखते है और अरूज़ के बारे में मज़ीद मालूमात हासिल करना चाहते है]

आजकल हमारे बहुत से शायर मित्र निम्न लिखित बह्र में ग़ज़ले कह रहे हैं

12122---12122---12122---12122

पर कुछ लोग इस अर्कान का नाम तो लिख देते हैं पर बहुत से लोग इस बह्र का नाम नहीं लिखते।

आज इसी बह्र पर चर्चा करेंगे।

[क] 12122--12112--12122--12122

क्लासिकल अरूज़ में आप  7-हर्फ़ी सालिम अर्कान के बारे में ज़रूर जानते होंगे।  जैसे मफ़ाईलुन[1222]--फ़ाइलातुन [2122]-

मुसतफ़ इलुन[2212]--मुतफ़ाइलुन [11212 ] -मुफ़ाइलतुन [12112--मफ़ऊलातु [2221] । सब का मात्रा भार 7 है 

इन्हे अरूज़ की भाषा में ’सुबाई अर्कान ’ कहतें है।  ये तमाम अर्कान एक वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा] और दो सबब [ दो हर्फ़ी कलमा ] से मिल कर उसी के

मुखतलिफ़  arrangement  से बनता है यानी 3-2-2 के टुकड़े से [7 हर्फ़] 

 जबकि 12122 एक 8-हर्फ़ी रुक्न है । तो क्या 8- हर्फ़ी[ हस्त हरूफ़ी] अर्कान भी हो सकते हैं ? 

जी हाँ | अरूज़ के लिहाज़ से ज़रूर हो सकते है, अगर आप दो वतद [3-हर्फ़ी कलमा]+ एक सबब [2-हर्फ़ी कलमा ] के यानी 3-3-2  [8 हर्फ़ी] के मुखतलिफ़ arrangement से बन सकते हैं।

 कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब ने अपनी किताब’आहंग और अरूज़’ में इसे बना कर दिखाया भी है और इस पर चर्चा भी की है ।

उन्होने इस combination/arrangement  से  6-अर्कान बनाए और इसके बाक़यदा नाम भी दिए , जिसमें से एक रुक्न बनाया

12122 = मफ़ा इला तुन= [ वतद+वतद+ सबब] = 3 +3 +2 =8=  और इसको रुक्न-ए- जमील नाम भी दिया।

आज इसी रुक्न से बनने वाली बह्र की चर्चा करेंगे।

बाक़ी के पाँच अन्य  8-हर्फ़ी रुक्न की चर्चा बाद में  कभी मुनासिब मुक़ाम पर करेंगे।

[ आशा करता हूँ कि आप लोग सबब-ए-ख़फ़ीफ़, सबब-ए-सकील, बतद-ए-मजमुआ,वतद-ए-मफ़रूक़ के बारे में ज़रूर जानते होंगे}

---   ----  --

[क] 12122---12122---12122---12122  यानी

   मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन--मफ़ाइलातुन--मफ़ाइलातुन 

और नाम होगा--बह्र-ए-जमील मुसम्मन सालिम 

सवाल यह कि यह 8-हर्फ़ी रुक्न उतने प्रचलित क्यों न हो सके जितनी 7-हर्फ़ी रुक्न प्रचलन में है?

कारण जो भी हो।कालान्तर में 8-हर्फ़ी अर्कान से बनी नई बह्रे भॊ प्रचलन में आ सकती हैं अगर आम शायर इस बह्र में शायरी करने लगे। फ़िलहाल ऐसा कुछ होते हुए ख़ास दिखता तो नही ।

ख़ैर

यही arrangement - 7-हर्फ़ी रुक्न से भी  हासिल हो सकता है। देखते है  यही वज़न 7-हर्फ़ी अर्कान से कैसे बरामद किया जा सकता है ? देखते हैं।

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क्लासिकल अरूज़ में एक मुरक़्कब बह्र है ।

 नाम है  -बहर-ए-मुक्तज़िब- जिसका बुनियादी अर्कान होता है

2221--2212-[ दोनों 7-हर्फ़ी सुबाई अर्कान]

मफ़ऊलातु--मुसतफ़इलुन


[ एक दिलचस्प बात --हम जानते हैं कि मुक्तज़िब [ मफ़ऊलातु = 2221] एक सालिम रुक्न तो है मगर इस सालिम रुक्न से कोई ’सालिम बह्र’ नहीं बनती । क्यॊं?

क्यों नहीं बनती?बता सकते हैं आप?

ख़ैर सालिम बह्र नहीं बन सकती तो क्या! किसी मुरक्कब बह्र में तो आ ही सकता है । और यहाँ आ भी गया। मुक्तज़िब [2221] ।

 इसी लिए इसीलिए इस मुरक़्कब बह्र का नाम है -बह्र-ए-मुक़्तज़िब।]

अगर इन अर्कान पर यानी 2221 और 2212 पर अगर कुछ ज़िहाफ़ का अमल करें तो-

2221+खब्न + रफ़अ’ = मख्बून मरफ़ूअ’ 121 = फ़ऊलु 

2212+ख़ब्न + रफ़अ’ = मख़्बून मरफ़ूअ’ 112 =  और इस पर अगर  तस्कीन-ए-औसत का अमल कर दे तो 

= मख्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन = 22 हासिल होगा ।

2221--2212  पर उक्त ज़िहाफ़ात के अमल के बाद इसकी मुसम्मन  शकल बरामद होगी 

121--22/ 121-22 

और इसकी मुसम्मन मुज़ाइफ़ शक्ल होगी

121-22/121-22//121-22/121-22 यानी एक मिसरा में 8-रुकन और पूरे शे’र मे 16 रुक्न्न

यानी  

[ख] 121-22/121-22/121-22/121-22 

अब  बह्र [क] और बह्र [ख] की तुलना कीजिए--

--दोनों का वज़न एक जैसा [ 32 मात्रा वज़न]  मगर रुक्न की तरतीब /क्रम/दिखाने का तरीका अलग अलग

--बज़ाहिर  दोनो के नाम अलग अलग है

--[क] 8-हर्फ़ी [ हस्त हरूफ़ी]रुक्न  से हासिल होता है  जो एक सालिम रुक्न है सालिम बह्र है।

--[ ख] 7-हर्फ़ी रुक्न यानी--सुबाई रुक्न से हासिल होता है जो एक मुरक़्क़ब  बह्र है और मुज़ाहिफ़ बह्र है।

बह्र [ख] के बारे में एक दिलचस्प बात और--

यही वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से भी बरामद हो सकती है और कुछ अरूज़ की किताबो मे दिखाया भी गया है मगर वह तरीका सही नही है। इस बात पर किसी और दिन चर्चा करेंगे।

एक दिलचस्प बात और --

बह्र-ए-रजज़ का एक मुज़ाहिफ़ वज़न 

1212--212--122 यह भी होता है } वज़न के क्रम की तुलना कीजिए 12--22/ 121-22 से

इसीलिए मैं कहता हूँ कि जब भी आप  वज़न लिखें तो  1 2 को सही  क्रम में लिखे जिससे बह्र पहचानने में सुविधा हो। मात्र 12122112221-[ Haphazard way]--को किसी क्रम में लिख देने से ही कोई बह्र नहीं हो सकती ,न बन सकती है । बह्र बनाने के लिए  ज़ुज का सही क्रम में होना ज़रूरी है जो अरूज़ के मान्य नियम क़ायदे क़ानून से बने हों।

सादर 

-आनन्द.पाठक-

[ नोट : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।