Sunday, December 21, 2025

एक परिचर्चा : 01

एक  परिचर्चा : 01 


 इधर कुछ हिंदीदाँ मित्र हिंदी ग़ज़लों में दुरूह उर्दू शब्दों का खुल कर प्रयोग करते है शायद इस आशय से कि ग़ज़ल उर्दू कि विधा है तो उर्दू शब्द बहुतायत में आना ही चाहिए जिससे श्रोताओं पर अभीष्ट प्रभाव पड़ सके। कभी कभी तो इन शब्दों की इतनी भरमार हो जाती है कि ग़ज़ल बोझिल सी लगती है। फिर उन तमाम शब्दों का हिंदी अर्थ भी कोश से देख कर नीचे लिख दिया जाता है। वैसे ऐसा न करने की कोई मनाहीं तो नही  आप कर सकते है आप स्वतर्न्त्र है  --अगर ये शब्द प्राकृतिक रूप से आए तो अच्छा लगता है।सच तो यह है कि आम बोलचाल की भाषा में कही गई  ग़ज़ल आम लोगों पर ज़ियादे प्रभावकारी होती है ।

वैसे शुद्ध हिंदी शब्दों से भी एक अच्छी ग़ज़ल कही जा सकती है और ग़ज़ल की शोभा बन सकती है।

ऐसी ही एक ग़ज़ल चन्द्रसेन विराट साहब की एक ग़ज़ल लगा रहा हूँ। आप भी आनन्द उठाएँ।


तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गए

थे कभी मुखपृष्ठ पर अब हाशियों तक  आ गए ।


यवनिका बदली कि सारा दृश्य  बदला मंच का

थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक  आ गए ।


वक्त का पहिया किसे कब हाय कुचले, क्या पता

थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक  आ गए । 


देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं

जो कि अध्यादेश थे ख़ुद अर्ज़ियों तक आ गए।


देश के संदर्भ में तुम बोल लेते ख़ूब हो -

बात ध्वज की थी चलाई, कुर्सियों तक आ गए।


प्रेम के आख्यान में तुम आत्मा से थे चले

घूम फिर कर देह की गोलाइयों तक आ गए ।


कुछ बिके आलोचको की मान कर ही गीत को

तुम ऋचाएँ मानते थे गालियों तक आ गए ।


सभ्यता के पथ पर यह आदमी की यात्रा 

देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गए ।


--चन्द्रसेन विराट---


[ प्रस्तोता : आनन्द पाठक ’आनन’ ]


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