किस्त 107 : बह्र 21---121---121--122 पर एक चर्चा
किसी मंच पर कुछ दिनों पहले मैने अपनी एक ग़ज़ल लगाई थी जिसके चन्द अश’आर थे
सच को तुम झुठलाते क्यों हो?
जब जब लाज़िम था टकराना,
हाथ खड़े कर जाते क्यों हो ?
पाक अगर है दिल तो ’आनन’,
दरपन से घबराते क्यों हो ?
और मूल बह्र लिखी थी 21---121---121---122 और नोट में यह लिखा था कि अगर आमने -सामने 1-1 को =2 कर दें तो एक नया वज़न मिलेगा 22----22---22----22 मगर यह ’मीर की बह्र’ नहीं होगी।
इस पर मेरे कुछ मित्रों ने इस नोट पर विस्तार की चर्चा की माँग की थी। यह आलेख उसी संदर्भ में लिखा गया है।
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मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि ’मीर की बह्र" के बारे में मेरे बहुत से दोस्तॊ को स्पष्टता नहीं है। यद्यपि मीर की बह्र के बारे में मैने एक लेख अपने ब्लाग
पर विस्तार से लिखा हूँ , क़िस्त 59 [ https://www.arooz.co.in/2020/06/60.html]
www.arooz.co.in
इच्छुक पाठक गण वहाँ देख/पढ़ सकते हैं। आगामी क़िस्तों में यहाँ भी ’मीर की बह्र’ के बारे लिखता रहूँगा।
अभी
21--121--121--122 पर चर्चा करते है कि यह बह्र कैसे बनती है और इससे 22--22--22--22 का वज़न कैसे बरामद किया जा सकता है।
आप इस बह्र को तो बख़ूबी पहचानते होंगे
122-----122-----122-----122 [ बह्र-ए- मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम ] और आप लोगों ने इस बह्र/वज़न में काफ़ी शायरी भी की होगी।
अगर इन सालिम अर्कान पर अगर कुछ ज़िहाफ़ लगा दें तो क्या होगा? [ ज़िहाफ़ात तो आप लोग जानते होंगे। अगर नहीं तो इसके बारे में मेरे ब्लाग पर विस्तार से देखा जा सकता है।
क़िस्त 12 से क़िस्त 21 तक www.arooz.co.in पर।
[ ज़िहाफ़ हमेशा सालिम रुक्न पर पर लगता है जबकि दो अमल [ तस्कीन-ए-औसत का अमल और तख़्नीक़ का अमल ] ऐसे है जो सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ रुक्न [ यानी ज़िहाफ़ शुदा रुक्न]
पर ही लगते है ---सालिम रुक्न पर कभी नहीं लगते। इन दोनों अमल के बारे में अगले क़िस्त में विस्तार से चर्चा करूँगा। अभी हम
122---122---122---122 पर ही चर्चा केन्द्रित करते हैं। इसप्र हम दो ज़िहाफ़ --सरम -- और--कब्ज़ का ज़िहाफ़ लगाते हैं , देखते हैं क्या होता है?
122+ सरम = असरम 21 [ सरम एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो हमेशा शे’र के इब्तिदा/असर के मुक़ाम पर ही लगते हैं।
122+ कब्ज़ = मक़्बूज़ 121 [ क़ब्ज़ एक आम ज़िहाफ़ है जो शे;र के किसी मुक़ाम पर लग सकते है --यहाँ हस्व के मुक़ाम पर लगा कर देखते हैं।
122---122---122---122 की शकल
21--121--121---122 हो जाएगी यानी
फ़’अ लु--फ़ऊलु--फ़ऊलु--फ़ऊलुन
बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर। इसे हम अभी -A- से दिखाते है सुविधा के लिए। यानी
A= 21---121----121----122
इस बह्र की मुजाइफ़ [ दो गुनी की हुई बह्र] भी मुमकिन है यानी
A // A = 21---121---121---122 // 21--121--121--122
इस बह्र का नाम तो वही होगा जो -अ- का है बस एक शब्द मुज़ाइफ़ और जोड़ देंगे। यानी
बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़बूज़ सालिम अल आख़िर मुज़ाइफ़
[ ध्यान देने की बात --मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ दोनो अलग अलग शब्द हैं =मुज़ाहिफ़ --शब्द ज़िहाफ़ से बना है यानी जिस रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा हो]
चूँकि अब यह , बह्र-ए-मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़ शकल हो गई तो अब इस पर ; तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है ।
[ तखनीक़ और तस्कीन-ए-औसत का अमल क्या होता है और यह मुज़ाहिफ़ रुक्न पर कैसे काम करते है, इसकी क्या सीमाएँ है, ्क्या rider है इस पर अलग से कभी चर्चा करेंगे।
बस आप यहाँ इतना ही समझ लें कि जब दो adjacent, मुज़ाहिफ़ रुक्न में 1-1 आमने सामने आ जाए तो वह -2-पर लिया जा सकता है ] यह अमल दो रुक्न पर साथ साथ
हो सकता है या सभी रुक्न पर एक साथ भी हो सकता है । और उस बदले हुए रुक्न मे मुख़्निक़ शब्द निशानदिही के लिए जोड़ देते है जिससे यह पता चलता रहे कि किस रुक्न
पर यह अमल किया गया है ।
जैसे
21-121--121---122 में [पहले + दूसरे रुक्न] पर तख़्नीख का अमल करें तो वज़न
22--21--121--122 हो जायेगा और नाम हो जाएगा
असरम, मक़्बूज़ मुख़्निक़, मक़्बूज़, सालिम
अगर हम [दूसरे+ तीसरे रुक्न ]पर यह अमल करें तो-
21----122---21---122 और नाम हो जायेगा
असरम, मक़्बूज़, मक़्बूज़ मुख़्निक़, सालिम
और आप ऐसे ही अन्य दो दो अर्कान पर क्रमश: अमल करते जाएँ।
यदि सभी अर्कान पर एक साथ तख़्निक़ का अमल कर दें तो क्या होगा ?
तो आप को यह वज़न मिलेगा
22---22---22---22--
बहुत से लोग इसे ही मीर की बह्र समझते है,मगर फिर भी यह मीर की बह्र नहीं होगी ।
[ मीर की बह्र पर आगे चर्चा करेंगे अभी हम उस मुक़ाम तक पहुंचने के लिए एक एक सीढ़ी चढ़ रहे है--कॄपया धैर्य बनाए रखें]
आप बता सकते है कि 21--121--121--122 पर तख़्नीक के अमल से कितने नए औज़ान बरामद हो सकते हैं?
आप फ़ुरसत में स्वयं कर के देखें और बताएँ।
एक दिलचस्प बात और--
यह सभी औज़ान मुतबादिल [ आपस में बदले जाने योग्य ] होते है। मतलब अगर आप ने मूल बहर 21--121--121---122 में ग़ज़ल कही है
तो उस ग़ज़ल का कोई मिसरा इन्ही मुतबादिल औज़ान के किसी एक वज़न मे होगा या होना चाहिए।
ऐसा क्यों?
ऐसी बह्र में .अगर आप ने सभी अर्कान पर तख़्निक़ का अमल कर दिया हो और वह लिस्ट आप के सामने हो [ मुझे उमीद है कि अबतक आप ने कर लिया होगा]
तो आप ध्यान से देखेंगे कि Individual रुक्न का वज़न तो बदल रहा है मगर मिसरा का Over all वज़न नहीं बदल रहा है । वह Constant ही
है यानी वज़न 16 का 16 ही है। इसीलिए इसे मुतबादिल वज़न कहते है कि ये तमाम दस्तयाब वज़न आपस में बदले जा सकते है और मिसरा के overall
वज़न पर कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है।
ख़ैर
यही बात मुरब्ब: और मुसद्दस वाली बह्र पर भी लागू हो सकती है यानी
मुरब्ब: 22--22 या 22--22-// 22--22
22--22--22 या 22--22--22// 22--22-22
फिर भी यह मीर की बह्र नहीं है । यानी " जहाँ देखो मारियो--अपना समझ के खा लियो" -वाली बात नहीं है ।
अभी तक जितनी बातें की है सब अरूज़ के नियम क़ानून क़वायद के दायरे में ही बात की है। अभी तक अरूज़ के खिलाफ़वर्ज़ी की बात नहीं की है।
अब अगली क़िस्त में बह्र-ए- मुतक़ारिब से बरामद होने वाली दूसरी मुज़ाहिफ़ बह्र की बात करेंगे----
[नोट -आप लोगों से अनुरोध है कि अगर कहीं ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही फ़र्मा दें कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं~।
सादर
-आनन्द.पाठक-
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