एक चर्चा : यह कौन सी बह्र है [ 122---122----122--1221 ] : क़िस्त 02
पिछली क़िस्त 01 में मैने इस बहर के नाम की चर्चा की थी और यह बताया कि इसके आख़िरी रुक्न 122 पर तस्बीग़ का ज़िहाफ़ लगा है । अत: इसका नाम बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुस्बीग़ होगा।
थोड़ी सी चर्चा  ज़िहाफ़ ;तस्बीग़’ की भी कर लेते हैं । यह ज़िहाफ़ उस सालिम रुक्न पर लगता है जिसके अन्त में ’सबब’ [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] आता है
और उसी आख़िर वाले सबब-ए-खफ़ीफ़ पर लगता है । जैसे
122 =मुतक़ारिब= फ़ऊ लुन  = यानी लुन [ आख़िरीवाला  सबब -2]पर लगेगा  = 122+ तस्बीग़ = 1221 = फ़ऊलान  = [ मुस्बीग़ कहलायेगा ]
1222 = हज़ज= मफ़ा ई लुन  = यानी लुन [आख़िरीवाला सबब- 2]  पर लगेगा = 1222+ तस्बीग़ = 12221 = मफ़ाईलान = मुसबीग़ कहलायेगा
2122 =रमल= फ़ा इला तुन  = यानी तुन [ आख़िरी वाला  सबब-2 ] पर लगेगा = 2122 + तस्बीग़ = 21221 = फ़ाइलयान  [ मुस्बीग़ कहलायेगा
यानी सब मे एक ही Rule  i,e आखिरी नून के पहले एक अलिफ़ का इज़ाफ़ा ।ड
और यह ज़िहाफ़ अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम के लिए ख़ास है --लगेगा तो मिसरा के आख़िरी वाले रुक्न पर ही और वह भी आखिरी वाले जुज -सबब [2]- पर।
अच्छा एक सवाल --आप के लिए 
क्या तस्बीग़ का ज़िहाफ़ -
11212 = मुतफ़ाइलुन =कामिल =  पर लग सकता है?  या
2212  = मुस तफ़ इलुन = रज़ज पर लग सकता है ?
आखिर इन अर्कान के अन्त में भी तो -2- आता है ।
लग सकता है तो क्यों ? और नहीं लग सकता है तो क्यों?
 कल इसी मंच पर मेरे एक मित्र ने इस बहर का नाम हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ मक्फ़ूफ़ बताया था । उन्होने किसी किताब का हवाला  दिया जिसमे उन्होने लिखा देखा होगा और पढ़ा होगा }। 
मगर मैं इस नाम से  सहमत नहीं हूँ।
मैं इस पर या उस किताब पर तो कोई कमेन्ट नहीं कर सकता। हो सकता है ’हिंदी ग़ज़ल’ के लिए कोई नया अरूज़ शास्त्र बना हो , मुझे पता नहीं।
मगर मै इससे इत्तिफ़ाक़ नही रखता~ अत: इस नाम पर मैं कोई कमेन्ट नहीं कर सकता। पर उर्दू अरूज़ के नुक़्त-ए-नज़र इस बह्र के नाम [ हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ मक्फ़ूफ़ ] पर ज़रूर कमेन्ट कर सकता हूं।
हज़ज मुसम्मन सालिम के अर्कान है
1222----1222---1222----1222   आप जानते होंगे।
अगर 1222  पर "कफ़" का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो ?
1222 [ मफ़ाईलुन ]  + कफ़ = मक्फ़ूफ़ 1221 [ मफ़ाईलु ] बरामद होता है ।
 यानी आख़िरी हर्फ़ -लु-  मुतहर्रिक बरामद होगा यानी आखिरी वाला -1- मुतहर्रिक है । 
कफ़- अगरचे एक आम ज़िहाफ़ है जो बह्र के किसी भी मकाम पर आ सकता है मगर यह - मफ़ाईलु- आख़िरी मुकाम पर नही आ सकता है जिसके अन्त में [लु] -1- मुतहर्रिक है ।
 --कारण ? 
कारण आप जानते होंगे।
किसी मिसरा के आख़िर में मुतहर्रिक हर्फ़ नहीं आ सकता --जब भी आएगा तो साकिन हर्फ़ ही आयेगा ।यह उर्दू भाषा की प्रकृति है । सारे अर्कान उसी प्रकार बनाए गए हैं उर्दू शे’र का हर मिसरा -साकिन - पर गिरता है । मुतहर्रिक पर नहीं। 
यही कारण है कि -मफ़ऊलातु -एक सालिम रुक्न होते हुए भी किसी सालिम बहर के अन्त में नहीं आता।
 अत: हज़ज का  मक्फ़ूफ़ [ 1221 ] शे’र के आख़िरी मुक़ाम [ अरूज़/ ज़र्ब] पर नहीं लाया जा सकता।
मिसरा के आख़िर में लाना सही नहीं होगा।
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दूसरी बात --
अगर 1222 पर - हज़्फ़ - का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो?
1222 + हज़्फ़ = महज़ूफ़ 122  बरामद होगा। 
यह ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ही आ सकता है  -- न कि सदर/इब्तिदा या हस्व के मुकाम पर ।
यानी ये दोनो ज़िहाफ़  1222---1222---1222---1222 पर
 लगा दें तो 122---122---122---1221 बरामद तो होगा । मगर 
जिस- महज़ूफ़- को  जहाँ लगना चाहिए [ यानी अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम पर] --वहाँ तो लगा नही
जिस -मक्फ़ूफ़- को  जहाँ  नहीं लगना चाहिए --वहाँ  लगा हुआ है --अरूज़ ज़र्ब के मुक़ाम पर।
यह अरूज़ के क़ायदे की खिलाफ़वर्जी है । 
फ़ैसला आप करें कि क्या यह नाम -हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ मक्फ़ूफ़ -सही है?
एक बात और
तसबीग़ का -1- और मक्फ़ूफ़ का -1- क्या दोनों एक ही है? 
नहीं ,कत्तई नहीं ।
 तसबीग. का -1- साकिन है
मक्फ़ूफ़ का -1- मुतहर्रिक [ लु ] है ।
[ इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर इस हक़ीर से कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशानदिही फ़रमाए कि यह राकिमआइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर
-आनन्द.पाठक-
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