Monday, June 1, 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : किस्त 11 [ ज़िहाफ़ात 02]

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 11[ज़िहाफ़ात]

Discliamer clause -वही जो किस्त 1 में है ]
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इसी सिलसिले में, क़िस्त 10 में उर्दू बहर में ज़िहाफ़ात की बात की थी जिसमें ज़िहाफ़ात के कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा की गई थी जैसे ज़िहाफ़ात क्या होते हैं ...उर्दू शायरी में इस की क्या अहमियत है.....ज़िहाफ़ात के बारे में जानन क्यों ज़रूरी है।

आलिम जनाब कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब  की किताब [आहंग और अरूज़] के हवाले से ज़िहाफ़ात की संख्या लगभग 48 बताई गई है }हालाँकि इन 48 ज़िहाफ़ात की सूची एक मुश्त तो नहीं दी गई है मगर अपने एक मित्र की आग्रह पर अन्य स्रोतों से मैने इकठ्ठा किया जो आप की सेवा में लिख रहा हूँ
ज़िहाफ़ हमेशा सालिम रुक्न के ’अयवयों’ पर लगते है जिससे सालिम रुक्न की शकल [वज़न] बदल जाती है और जो रुक्न  बरामद होती है उसे ’मुज़ाहिफ़’ कहते है जैसे ’खब्न’ जिहाफ़ के अमल से जो मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद होगा उसका नाम ’मख़्बून’ होगा  जो ख़र्ब ज़िहाफ़ के अमल से बरामद होगा उसका मुज़ाहिफ़ नाम ’अख़रब’ होगा या जो क़तअ ज़िहाफ़ के अमल से बरामद होगा उस का मुज़ाहिफ़ नाम ’मक़्तूअ’ होगा ....वग़ैरह वग़ैरह

नाम-ए-ज़िहाफ़ नाम-ए-मुज़ाहिफ़

1 अस्ब मौसूब
2 अज़ब अज़ाब
3 अक़्ल मौक़ूल
4 नक़्स मन्क़ूस
5 क़त्फ़ मक़्तूफ़
6 क़स्म अक़साम
7 ह्जम अहज़म
8 अक़स अक़ास
9 इज़्मार मुज़्मार
10 वक़स मव्क़ूस
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11 ख़ज़्ल मख़्ज़ूल
12 ख़ब्न मख़्बून
13 तय्य मुतव्वी
14 क़ब्ज़ मक़्बूज़
15       कफ़ मौकूफ़
16 ख़ब्ल मख़्बूल
17 शक्ल मश्कूल
18 तस्बीग़ मुस्बाग़
19 तज़ील मुज़य्यल
20        तरफ़ील मुरफ़्फ़ल
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21 क़स्र मक़्सूर
22 हज़्फ़ महज़ूफ़
23 क़तअ  मक़्तूअ
24 हज़ज़ अह्ज़ज़
25 वक़्फ़ मौव्क़ूफ़
26 कस्फ़[कश्फ़] मक्सूफ़[मक्शूफ़]
27 सलम असलम
28 नहर मन्हूर
29 बतर अबतर
30 तख्लीअ मुतख़्लअ
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31 ख़ज़्म मख़्ज़ूम
32 तशीश मुश्शश
33 ख़रम अख़रम
34 सलम असलम
35 सरम असरम
36 सतर असतर
37 ख़र्ब अख़रब
38 रफ़अ मरफ़ूअ
39        जब्ब मजबूब
40 अरज़ इराज़
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41 इज़ला मज़ाल
42 ख़लअ मख़्लूअ
43 जद्दअ मज़्दूअ
44 सल्ख़ मस्लूख़
45 रब्बअ मरबूअ
46 तम्स मत्मूस
47 जम्म अज़्म
48 हत्म
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नोट :
2- उक्त लिस्ट अरूज़ के कई मुस्तनद किताबों से मुरत्तब किया है
3- ज़िहाफ़ात की संख्या पर मतभेद हो सकता है क्यों कि कई ज़िहाफ़ ;तस्कीन-ए-औसत’ और तख़्नीक के अमल से भी बनाये जाते  हैं 
4-सभी ज़िहाफ़ सभी रुक्न पर नहीं लगते -कुछ ज़िहाफ़ रुक्न में  सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगते है ,कुछ सबब-ए-सकील पर लगते है कुछ वतद-ए-मज़्मूआ और कुछ वतद-ए-मफ़रूक़ पर लगते है
5- 1-से लेकर 11 तक के ज़िहाफ़ तो सिर्फ़ अरबी बहर - बहर-ए-कामिल और बहर-ए-वाफ़िर पर लगते है 
6- कुछ ज़िहाफ़ है जो आम ज़िहाफ़ कहलाते है वो शे’र के किसी मुकाम [ सदर...हस्व...अरूज़...इब्तिदा....जर्ब] पर लग सकते हैं जब कि ख़ास ज़िहाफ़ सदर..इब्तिदा या जर्ब या अरूज़ के मुकाम के लिए ही मख़्सूस है
7- रुक्न पर जिहाफ़ लगने के बाद रुक्न मुज़ाहिफ़ नाम अख़्तियार कर लेता है
8- हो सकता है कि देवनागरी लिपि में तर्जुमा करने पर तलफ़्फ़ुज़ में फ़र्क़ नज़र आए जैसे यहाँ ’ऐन या अलिफ़ को ’अ’ से ही लिखा जा सका  है
8-उर्दू शायरी में ज़िहाफ़ खुद में एक विस्तॄत विषय है 
ऊपर मैने कहा है -ज़िहाफ़ हमेशा सालिम रुक्न के ’अयवयों’ पर अमल करते है -
अब सवाल यह है सालिम रुक्न कितने होते है ?
और यह सालिम रुक्न के ’अवयव’ [ज़ुज] क्या हैं ?[इसी सालिम लफ़्ज़ से मुसल्लम बना है -मुर्ग मुसल्लम ,गोभी मुसल्लम]
यद्द्पि पहले की क़िस्तों में  ’सालिम रुक्न’ और उनके अवयवो’ की चर्चा कर चुका हूँ -ज़िहाफ़ के अमल को समझने के लिए एक बार पुन: यहाँ चर्चा करना मुनासिब होगा

हम सब जानते है कि उर्दू शायरी में 8- सालिम रुक्न हैं जो निम्न हैं इनको इनके ’अवयव’ के साथ लिख रहा हूँ यानी ये सालिम किन किन जुज़ [ अवयव] से मिल कर कैसे बना है  । इन अवयवों [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ,सबब-ए-सकील ,वतद-ए-मज़्मुआ ,वतद-ए-मफ़रूक़ ]के तफ़्सीलात आगे पेश करूँगा]

1-फ़ऊ लुन  [ 12 2 ]     = वतद मज़्मुआ{फ़ऊ 12}     + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ {लुन 2} --यह बह्र-ए-मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है
2-फ़ा इलुन   [ 2 12 ]     = सबब-ए-ख़फ़ीफ़{ फ़ा 2]+  वतद-ए-मज़्मुआ{इलुन 12} --यह बह्र-ए-मुतदारिक़ का बुनियादी रुक्न है
3- मफ़ा ई लुन [12 2 2 ]      = वतद-ए-मज़्मुआ[मफ़ा 12)+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़(ई2}+सबब-ए-खफ़ीफ़[लुन 2} -  यह बहर हज़ज का बुनियादी रुक्न है
4-फ़ा इला तुन [ 2 12 2 ]  = सबब-ए-ख़फ़ीफ़{फ़ा 2)+वतद-ए-मज़्मुआ{इला 12]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़(तुन 2) -- यह बह्र-ए-रमल का बुनियादी रुक्न है
5-मुस तफ़ इलुन [ 2 2 12]  = सबब-ए-ख़फ़ीफ़ {मुस2]+सबब-ए-खफ़ीफ़{तफ़2) +वतद-ए-मज़्मुआ (इलुन 12)    - यह बहर-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है
6-मुफ़ा इल तुन [ 12 1 1 2]      = वतद-ए-मज़्मुआ[मुफ़ा 12)+सबब-ए-सकील(इ ल 11]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[तुन12]    -  यह बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है
7- मुत फ़ा इलुन [ 1 1 2 1 2]  = सबब-ए-सकील-(मु त 1 1)  + सबब-ए-ख़फ़ीफ़(फ़ा 2)+वतद-ए-मज़्मुआ(इलुन 12} -- यह बह्र-ए-कामिल का बुनियादी रुक्न है
8 -मुफ़ ऊ लातु  [2 2 2 1 ]       =  सबब-ए-ख़फ़ीफ़ (मुफ़2)    + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ (ऊ 2) + वतद-ए-मफ़रूक(लातु 21) -- बहर-ए-मुक़्तज़िब

रुक्न- ’मफ़ऊलातु’- सालिम रुक्न तो है पर किसी शे’र के अरूज़ या जर्ब के मुकाम पर नहीं आ सकता -कारण कि जो आखिरी हर्फ़ ’तु’ है वो मुत्तहर्रिक है और उर्दू शायरी में किसी शे’र के अन्त  [आखिर में] ’मुत्तहर्रिक’ पर खत्म नहीं होता /
[हर्फ़ मुत्तहर्रिक ,साकिन. साकित  के बारे में पहले भी चर्चा कर चुके हैं आगे एक बार फिर चर्चा करेंगे  जिस से ज़िहाफ़ात समझने में सुविधा होगी ] यही कारण है कि रुक्न ’मफ़ऊलातु’ शे’र के मुकाम अरूज़ और जर्ब के मुकाम पर नहीं आ सकता अगर आयेगा भी तो अपने ’मुज़ाहिफ़’ शकल में आयेगा
[ शे’र के मुकाम  सदर---इब्तिदा...हस्व..अरूज़...जर्ब.. की पहले भी चर्चा कर चुके हैं एक बार फिर आगे चर्चा करेंगे जिससे ज़िहाफ़ात समझने में सुविधा होगी।
अगर आप ऊपर के 8-सालिम रुक्न पर गौर फ़र्माए तो बहुत सी दिलचस्प बातें आप को मिलेंगी। चलिए ,चलते चलते उस पर भी चर्चा कर लेते हैं
1- रुक्न 1 और 2 हिन्दी से उर्दू में आई और बाद में आईं
2- शुरु में 3-8 तक के अर्कान तक ही उर्दू  शायरी में आए 
3-अगर आप रुक्न क्र0  3,4,और 5 में  1..2...2...2.. गिर्दान [चक्र] की लोकेशन पर ध्यान दें तो क्रमश: अपने पूर्व स्थान से एक स्थान आगे खिसक रहा है । दर अस्ल यह अर्कान एक निश्चित नियम से बरामद किए जाते है जिसे अरूज़ की भाषा में ’दायरा’ [सर्किल या वृत्त] कहते हैं । यहां हमें ’दायरे’ के बारे में विस्तार से जाने की ज़रूरत नहीं है } हमारा काम इतना से ही चल जायेगा
4- अगर आप ध्यान से देखें तो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए  कहीं ’लुन’ ...कहीं ’तुन’ ...कहीं ’मुस’...कहीं ’तफ़’...कहीं ’फ़ा’ ..तो कहीं ’मुफ़’ लिखा है हालाँ कि सबका वज़न ’2’ ही है -। शायद सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए कोई एक ही अवयव -जैसे ’फ़ा’ ही काफी होता ...मगर नहीं । ऐसा क्यों होता है ,मत पूछियेगा --क्लासिकी अरूज़ी की किताबों में ऐसा ही लिखा है और हम सब ऐसा ही मानते आए हैं और ऐसी ही तफ़ाईल से शायरी करते हैं
5- यही बात वतद-ए-मज़्मुआ के बारे में भी है जिसके लिए ऊपर हम ने कहीं ’फ़ऊ...कहीं मफ़ा....कहीं ’इलुन’ ....का प्रयोग किया है 
6- उर्दू में ’फ़ा इला तुन’ और ’मुस तफ़ इलुन’ दो प्रकार से लिखते है---एक तो सब हर्फ़ मिला कर लिखते है जिसे ’मुतास्सिल शकल’ कहते है  और दूसरे में हर्फ़ में कुछ फ़ासिला देकर लिखते हैं जिसे ’मुन्फ़सिल शकल’ कहते है ।हालाँकि दोनो शक्लों में ’वज़न ’ एक सा ही रहता है  हाँ दोनो शकलों के ’ज़िहाफ़’  अलग अलग  होते है ।हमें यहां~ बहुत गहराई में जाने की ज़रूरत नहीं है -
अब लगे हाथ हर्फ़ के ’हरकत’ और साकिन की भी चर्चा कर लें
उर्दू के हरूफ़-ए-तहज्जी [वर्ण माला] में ---- हर्फ़ है जो सभी साकिन है । साकिन हर्फ़ को आप ऐसे ही समझिए जैसे संस्कॄत में  न् ..त्...म्....क्...बोलते है यानी जुबान पर बिना किसी ’हरकत’ दिए बोलते है -
लेकिन कब ’कमल’ बोलते हैं तो मतलब  
कमल  =  क्+अ  + म्+अ+ल्+अ  --यानी क् ,म्, ल्  तो साकिन् है और ’अ’ इन्हे हरकत दे रहा है 
उर्दू में मात्रा कि जगह ’ जबर; ज़ेर,पेश तश्दीद तन्वीन आदि प्रयोग करते है जब कि हिन्दी में अ...आ..इ...ई.. आदि प्रयोग करते है यानी आप यह समझ लें कि जिस हर्फ़ पर ’जबर...ज़ेर..पेश..लगा हो वो हर्फ़ को हरकत देगा ऐसे हर्फ़ को मुतहर्रिक कहते हैं
बज़ाहिर उर्दू में कोई लफ़्ज़ [ जो हर्फ़ से बनता है] ’साकिन’ से शुरु नही होता [हिन्दी में भी नहीं होता] मगर खत्म साकिन पर ही होता है यानी उर्दू में कोई लफ़्ज़ ’हरकत’ पे खत्म नहीं होता यही कारण था कि मैने ऊपर लिखा था कि रुक्न ’मफ़ऊलातु’ [जिसमें आखिरी हर्फ़ पर हरकत है] किसी शेर के आखिर में इसी रूप में नही आ सकता।
हिन्दी में कदाचित्...तत्पश्चात्...श्रीमान् के बजाय कदाचित....तत्पश्चात...श्रीमान लिखते जा रहे हैं यानी तत्सम का फ़ैशन खत्म होता जा रहा है यानी ’साकिन’ भी हरकत होता जा रहा है 
फिर उर्दू की बात पर ही आ रहे हैं---- ऊपर ’लुन’ में ’न’[यानी नून]  साकिन है मगर ’लातु’ में ’तु’ [यानी ’ते’ पर हरकत है
अदि हम यह कहें कि ’कमल’ के ’क’ में से हरकत हटा दे तो ’क’ -साकिन हो जायेगा
यदि हम यह कहें कि ’क’ को साकित कर दिया --तो उसका मतलब ’क’ हट गया [हरकत साकिन सहित]
यदि हम यह कहें कि ’लुन’ को साकित कर दिया ...इसका मतलब रुक्न से ’लुन’ हट गया यानी साकित हो गया 
यदि हम यह कहे के ’लुन’[लाम+नून]  यहा लाम पे हरकत है और नून साकिन है ] कि नून को साकित कर दिया और लाम को साकिन तो इसका मतलब ये हुआ कि लाम से हरकत हटा दिया
जिस हर्फ़ पर ’हरकत’ लगा हुआ हो -उसे ’मुतहर्रिक कहते है
चलते चलते .सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की भी चर्चा कर लेते हैं
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ----- वह दो हर्फ़ी लफ़्ज़ जिसमें पहला हर्फ़ मुत्तहर्रिक [जिस हर्फ़ पर हरकत लगा हो] और दूसरा हर्फ़ साकिन हो 
जैसे अब...बस....फ़ा..लुन...मुस...तफ़...आदि जिसमे पहला हर्फ़ मुत्तहर्रिक और दूसरा हर्फ़ साकिन है 
अब में  अलिफ़+बे 
फ़ा  में   फ़े + अलिफ़
मुस  में  मु  मुतहर्रिक है ’स’ साकिन है 
अच्छा ’अलिफ़’ जब लफ़्ज़ के शुरु में आये तो ’मुत्तहर्रिक’ होगा जब लफ़्ज़ के आखिर में आयेगा तो ’साकिन ’होगा --कारण कि उर्दू में कोई लफ़्ज़ साकिन से नहीं शुरु होता है और न ही मुतहर्रिक पे खत्म होता है
सबब-ए-सकील ........वह दो हर्फ़ी लफ़्ज़ जिसमे पहला हर्फ़ मुतहर्रिक हो [यानी पहले हर्फ़ पर हरकत लगा हो ] और दूसरा हर्फ़ भी मुत्तहर्रिक हो [यानी दूसरे हर्फ़ पर भी हरकत लगा हो]
बह्र-ए-कामिल में जो ’मु त’ देखर रहे है उस में मीम और ते  दोनो पर हरकत है  ’मु त . कोई लफ़्ज़ नहीं है वो तो बस सबब-ए-सकील को समझाने के लिए एक अलामत बना लिया गया है उर्दू में ऐसा कोई लफ़्ज़ हो ही नही सकता  जिसके आखिरी हर्फ़ पर ’हरकत’ लगी हो 
वतद-ए-मज़्मुआ  --- वो तीन हर्फ़ी लफ़्ज़ जिसमे पहला हर्फ़ ’हरकत’+दूसरा हर्फ़ हरकत+तीसरा हर्फ़ साकिन हो  यानी  दो मुतहर्रिक हर्फ़ एक जगह जमा हो गए इसीलिए इसे ’मज्मुआ’ कहते है 
 ’फ़ऊ’ = फ़े+एन+वाव  = हरकत+हरकत+साकिन
 इलुन  = एन+लाम+नून  =हरकत +हरकत+साकिन
मफ़ा   = मीम+फ़े+ अलिफ़= हरकत+हरकत+साकिन
वतद-ए-मफ़रुक़------- वो तीन हर्फ़ी लफ़्ज़ जिसमे पहले हर्फ़ पर हरकत+दूसरा हर्फ़ साकिन+तीसरा हर्फ़ हरकत हो 
जैसे मफ़ऊलातु में ’लातु’  । लातु = लाम +अलिफ़+ते = हरकत+साकिन+हरकत  [यानी दो मुत्तहर्रिक के बीच मे फ़र्क़ है यानी बीच में साकिन आ गया इस लिए इसे मफ़रूक़ कहते है 

अब चलते चलते शे’र के मुकामात की भी चर्चा कर लेते है -कारण कि ज़िहाफ़ात की चर्चा में इसका ज़िक़्र आयेगा

                                        किसी भी .शे’र में दर्ज-ए-ज़ैल मुकाम होते है

सदर.....हस्व...............हस्व     .....अरूज़
इब्तिदा----हस्व-.....हस्व...............जर्ब

यानी शे’र के मिसरा उला के पहले मुकाम को”सदर’ कहते है और आखिरी मुकाम को ’अरूज़’
और शे;र के मिसरा सानी के पहले मुकाम को ’इब्तिदा’ और आखिरी मुकाम  को  ’जर्ब’ कहते है
और दोनो मिसरा के बीच के मुकाम को ’हस्व’ कहते है
बात स्पष्ट करने के लिए इस हक़ीर फ़क़ीर का एक शे’र लेते है...........

मैं राह-ए-तलब का मुसाफ़िर हूँ  ’आनन’
मेरी इब्तिदा  मेरी   दीवानगी   है 

सदर        /  हस्व        /हस्व           /अरूज़
मैं राह-ए/   -तलब का/   मुसाफ़िर / हूँ  ’आनन’

इब्तिदा  /  हस्व    /हस्व     / जर्ब
मेरी इब्/ तिदा मे/री  दीवा/ नगी   है 

यह बात बतानी इस लिए भी ज़रूरी थी कि कुछ ज़िहाफ़ ’आम’ होते हैं जो शे’र के किसी मुकाम पर आ सकते  है ,जब कि कुछ ज़िहाफ़ ख़ास होते है जो ख़ास मुकाम [ सदर ...अरूज़...इब्तिदा...जर्ब] के लिए मख़्सूस होते है 

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नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

Reviewed n corrected by Ram Awadh Vishwkarma ji on 01-10-21

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