Monday, June 1, 2020

उर्दू बह्र का बातचीत : क़िस्त 48 [ बह्र-ए-मदीद ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 48 [  बह्र-ए-मदीद]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 
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---पिछली क़िस्त में हम .बह्र-ए-बसीत की चर्चा कर चुके हैं ?अब हम बह्र-ए-मदीद की चर्चा करेंगे

बह्र-ए-मदीद भी एक मुरक़्क़ब बह्र है जो दो अर्कान से मिल कर बनता है
बह्र-ए-मदीद भी एक अरबी बह्र है जो उर्दू शायरी में भी मुस्तमिल है मगर उर्दू शायरी में यह बह्र इतनी प्रचलित नहीं है
इस बह्र में उर्दू शायरों ने बहुत कम शायरी की है । और की भी है तो मुसम्मन शकल मे ही ज़्यादा किया है।इस बह्र के बारे में जानने में कोई हर्ज भी नहीं है।हो सकता है आप में से ही कोई पाठक इस बह्र में शायरी करना शुरु कर दे
इस बह्र का बुनियादी रुक्न है ---
फ़ाइलातुन + फ़ाइलुन
2122 + 212   
मदीद की मानूस चन्द बह्रें
[1] बह्र-ए-मदीद मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन--//-फ़ाइलातुन----फ़ाइलुन
2122--------212----//---2122--------212
 अरूज़ और ज़र्ब में फ़ाइलुन [212] की जगह इसका मज़ाल यानी फ़ाइलान [2121] भी लाया जा सकता है
यह बह्र-ए-शिकस्ता भी है
उदाहरण--आग़ा सादिक का एक शे’र है
किस का लुत्फ़-ए-बेकराँ कारफ़र्मा हो गया
ज़र्रा सहरा हो गया ,क़तरा दर्या    हो गया

अब तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2      1     2   2   / 2  1  2// 2 1 2 2      / 2 1 2
किस का लुत फ़े / बे क राँ// कार फ़र् मा/हो गया
2    1    2   2  / 2 1 2 // 2    1  2   2  / 2 1 2
ज़र् र  सह रा/ हो गया //,क़त र: दर् या / हो गया

[2] ज़रा इस बह्र की मुरब्ब: सालिम मुज़ाइफ़ की भी चर्चा कर लेते है
इसकी मुरब: शक्ल होगी
फ़ाइलातुन----फ़ाइलुन
फ़ाइलातुन------फ़ाइलुन
यानी
2122---212
2122---212
और् यह भी सही है कि आखिर में यानी अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर फ़ाइलान [2121] भी लाया जा सकता है
अगर इस की यानी मुरब: की  मुज़ाइफ़ शकल लिखी जाय तो?[यानी मिसरा में 4-बार और शे’र में 8-बार]
फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन --- फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन
2122--------212---------2122------212

अरे यह तो बह्र-ए-मदीद की मुसम्मन सालिम वज़न हो गया
तो क्या यह बह्र-ए-मुरब: सालिम मुज़ाइफ़ है या बह्र-ए-मदीद मुसम्मन सालिम है?
जी हाँ ,दोनो हो सकता है । मगर दोनो में एक बुनियादी फ़र्क़ है
मुसम्मन सालिम में--मज़ाल [यानी फ़ाइलान 2121] सिर्फ़ अरूज़ और ज़र्ब पे लाया जा सकता है जो शे’र का आखिरी रुक्न होता है
मगर
मुरब्ब: सालिम मुज़ाइफ़ में मज़ाल [ फ़ाइलान 2121] शे’र के हस्व मुक़ाम [ दूसरा और छठा मुक़ाम] पर भी लाया जा सकता है --अरूज़ और ज़र्ब पर तो लाया ही जा सकता
ख़ैर

[3]  बह्र-ए-मदीद मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन----फ़ाइलुन---फ़ाइलातुन
2122---------212--------2122
अगर किसी बुनियादी रुक्न की बनावट A--B के फ़ार्म में हो तो इसकी मुसद्दस शकल A--B---A  की शकल में होगी
 उदाहरण - कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से

मैं हुआ बरबाद तो  ग़म नहीं है
आप की पुरसिश भी कुछ कम नही है
तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2  1  2  2    / 2 1 2 / 2   1 2 2
मैं हुआ बर /बाद तो / ग़म नहीं है/
2   1  2   2  /  2     1   2     / 2  1  2 2
आप की पुर /सिश भी कुछ/ कम नही है

चलिए एक और आहंग देख लेते हैं
चलते चलते एक आहंग और देख लेते हैं
[4] बह्र-ए-मदीद मुसम्मन मक्फ़ूफ़
आप जानते है कि फ़ाइलातुन [2122] पर ’कफ़’ का ज़िहाफ़ लगाने से मक़्फ़ूफ़ फ़ाइलातु [ 2121 ] -ते- मुतहर्रिक हासिल होता है और
फ़ाइलुन [212] पर कफ़ का ज़िहाफ़ लगता ही नहीं तो बह्र-ए-मदीद मुसम्मन मक्फ़ूफ़ का आहंग होगा

फ़ाइलातु-----फ़ाइलुन---//---फ़ाइलातु-----फ़ाइलुन
2121---------212------//    2121 -------212
फ़ाइलुन [2 1 2 ] की जगह ’फ़ाइलान’ [ 2121] भी लाया जा सकता है
यह बह्र-ए-शिकस्ता भी है

उदाहरण अब्दुल हमीद ’अदम’ का एक शे’र है

कितनी दिल फ़रेब है ,कितनी बेमिसाल है
ज़िन्दगी भी आप के गेसुओं   का जाल  है

तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2       1   2     1 / 212 //    2  1   2  1   / 2 1 2
कित नी दिल फ़/ रेब है // ,कित नी बे मि/ साल है
2       1  2  1  / 2 1 2 // 2 1 2     1    / 2 1 2
ज़िन द गी भी /आप  के// गेसुओं   का / जाल है

[5] बह्र-ए-मदीद मुसम्मन मख़्बून 
फ़ इला तुन---फ़ इलुन---// फ़ इला तुन---फ़ इलुन---
1122----------112----// 1122---------112
आप जानते हैं कि फ़ाइलातुन [2122] पर ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगाने से फ़ इलातुन [  1122] हासिल होगा और फ़ाइलुन [212] पर लगाने से फ़इलुन [112] हासिल होगा
एक उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से देख लेते हैं

मुझे आँखों में बसा ,मुझे सीने में छुपा
मुझे पलकों पे सजा ,तेरा महबूब हूँ मैं

अब तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
1 1     2   2 / 1 1 2 // 1 1 2 2  / 1 1 2
मुझे आँखों /में बसा //,मुझे सीने /में छुपा

1  1  2    2   /  1 1 2 // 1 1  2 2   / 1 1 2
मुझे पल कों/ पे सजा //,तिरा महबू /ब हूँ मैं
 अब आप कहेंगे कि -"मुझे पलकों ’पर- सजा---"पढ़ते तो क्या हो जाता ?
कुछ नहीं होता। मानी में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता --पर मिसरा बह्र से ख़ारिज हो जाता ] क्यों? आप बताएं क्यों?

ज़िहाफ़ के हिसाब से मदीद के और भी आहंग  मुमकिन हैं
बह्र-ए-मदीद का बयान खत्म हुआ
अब अगले क़िस्त में बह्र-ए-मुन्सरिह की चर्चा करेंगे
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नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

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